रायगढ़। बेशर्मी और ढीठाई की भी हद होती है, लेकिन जिले के गेरवानी क्षेत्र में स्थापित करोड़ों-अरबों की नामीगिरामी कम्पनियाँ अपनी साख को ताक पर रख मनमानी करने पर उतर आयीं हैं और ग्राम पंचायतों के सडक़ों का धड़ल्ले से उपयोग करते हुए स्थानीय लोगों का आवागमन मुश्किल कर दिया है। जर्जर हो चुके सडक़ से जहाँ बाइक सवार नहीं निकल पाते वहीं स्कूली बच्चों को भी स्कूल आने-जाने में काफी जद्दोजहद करनी पड़ रही है।
उल्लेखनीय है कि बीते माह जुलाई में ग्राम लाखा व चिराईपानी के ग्रामीणों तथा जन प्रतिनिधियों ने बुरी तरह से खराब हो चुके कच्ची सडक़ के मरम्मत को लेकर आर्थिक नाकेबंदी की थी। इसमें कार्यपालक दंडाधिकारी श्रीमति अनुराधा पटेल द्वारा मौके पर पहुँच आंदोलनरत ग्रामवासियों और जन प्रतिनिधियों के समक्ष सम्बंधित उद्योगों सुनील इस्पात, महालक्ष्मी कास्टिंग, वजरान इंडस्ट्रीज, श्री ओम रुपेश, रियल वायर आदि के प्रबंधकों को बुलवा कर लिखित में समझौता कराया गया था। इसमें 15 दिनों के अंदर गिट्टी, मुरूम एवं बोल्डर डालकर सडक़ को चलने योग्य बनाये जाने की बात हुई थी। ग्रामीणों ने पुलिस और प्रशासन के समक्ष उद्योग प्रबंधकों के लिखित वादे पर भरोसा करते हुए आंदोलन समाप्त कर दिया था, लेकिन 15 दिन तो क्या ढाई महीने गुजर गए सडक़ की स्थिति जस के तस बनी हुई है।
बताया जा रहा है कि सुनील इस्पात एन्ड पॉवर लिमिटेड द्वारा सडक़ के कुछ हिस्से को पाट कर मात्र औपचारिकता निभाई, मगर बाकि उद्योगों ने कोई रूचि नहीं ली। उद्योग प्रबंधकों के उदासीन रवैये से क्षुब्ध ग्रामीणों ने आज फिर मोर्चा खोल दिया और सुबह 10 बजे इस मार्ग पर आवागमन करने वाले ट्रक, डम्पर जैसे बड़े वाहनों के पहिए थम गए और शाम से रात होते-होते भारी वाहनों की लम्बी कतार बन गयी है जो मुख्यमार्ग तक पहुँच गयी है।
बताते चलें कि मार्ग अवरुद्ध हुए 12 घंटे से अधिक समय बीत चुके हैं, लेकिन किसी के कानों पर जूँ तक नहीं रेंग रही है। न तो उद्योग प्रबंधन सामने आ रहा है और न ही कोई प्रशासनिक अधिकारी सुध ले रहा है। इस प्रकार उद्योग प्रबंधनों की चुप्पी और वादा खिलाफी जहाँ उनकी मक्कारी को प्रदर्शित करता है वहीं शासन-प्रशासन का कोई भय भी नहीं रहा। ऐसे में ग्रामीण जनों के मन में यह सवाल जरूर उठता होगा कि इन कंपनियों के जनसुनवाई में क्या यही सब झेलने के लिए समर्थन दिया गया था? आखिर कहाँ गया सामाजिक उत्तरदायित्व? स्कूलों में कॉपी, पेन और बैग बाँट देने मात्र से क्या इनकी जिम्मेदारी पूरी हो जाती है? स्थानीय लोगों की जमीन पर करोड़ों-अरबों कमाने वाले आखिर देते ही क्या हैं? विकास के नाम पर जहरीला धुंआ, राख, दूषित जल, पेड़-पौधों का सफाया, तिल-तिल कर मरने के लिए गंभीर बिमारियों का तोहफा, किसानों और मजदूरों का शोषण, यही सब तो है उन्नति का झुनझुना। फिलहाल, ग्रामीणों ने पूरी तरह से कमर कस लिया है और मरम्मत होने तक बड़े वाहनों के आवागमन को प्रतिबंधित कर दिया है। अब देखना दिलचस्प होगा कि सडक़ बनाने का लिखित वादा करने वाली कम्पनियाँ अपना मौनव्रत कब तक साधे रख पाती हैं?
उद्योगों की वादाखिलाफी से गुस्साए ग्रामीणों ने किया चक्काजाम
