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NavinKadam > रायगढ़ > डॉक्टर पिता के विरासत को आगे बढ़ाते उनके बच्चे
रायगढ़

डॉक्टर पिता के विरासत को आगे बढ़ाते उनके बच्चे

lochan Gupta
Last updated: July 2, 2025 12:13 am
By lochan Gupta July 2, 2025
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10 Min Read

एक पीढ़ी ने 4 दशक तक साथ में सेवाएं दी अब उनकी दूसरी पीढ़ी भी साथ में सेवा दे रही पीढिय़ों से लोगों की सेवा करते आ रहे रायगढ़ के डॉक्टर परिवार के दम पर रायगढ़ की स्वास्थ्य व्यवस्था टिकी है। इनके बिना रायगढ़ का स्वास्थ्य कैसा रहेगा इसकी आप परिकल्पना नहीं कर सकते। इस बार डॉक्टर्स डे पर हमने डॉक्टर्स की कहानी आपके सामने प्रस्तुत कर रहे हैं कि उन्होंने क्यों डॉक्टर बनने की सोची, उनकी प्रैक्टिस कैसी रही और उनके बच्चों ने भी डॉ. बनने की क्यों ठानी। नई पीढ़ी के डॉक्टर्स की अभी शुरुआत है वह आगे क्या करना चाहती है पढि़ए उनके बारे में हमारी विशेष रिपोर्ट

डॉ. सुचित्रा त्रिपाठी : उम्र 79 की जज्बा 24 का

कार्मेल स्कूल के पास प्रियंवदा क्लीनिक जहां हिंदी, अंग्रेजी, ओडिया या फिर छत्तीसगढिय़ा जिस भाषा में मरीज बात करते है उसके साथ उसी भाषा में बात करते-करते जांच करती हैं पूरे प्रदेश की सबसे वरिष्ठ स्त्री एवं प्रसूति रोग विशेषज्ञ डॉ. सुचित्रा त्रिपाठी। जिन्हें पूरा रायगढ़ सूची नानी के नाम से जानता है। ओडिय़ा में नानी यानी दीदी, यह उनके व्यक्तित्व का औरा ही है कि उनके लिए सबसे पहले शब्द नानी ही लोगों की जुबां पर आता है। उम्र 79 का पर जज्बा 24 का, 55 साल से लोगों की सेवा कर रही डॉ. त्रिपाठी शांत सौम्य एवं सरल स्वभाव की हैं। रायगढ़ की लगभग तीन पीढ़ी को चिकित्सीय परामर्श के साथ सेवा करने वाली डॉ. त्रिपाठी किसी पहचान की मोहताज नहीं। उनकी प्रैक्टिस को सेवा इसलिए कहा जाता है कि वह लगभग निशुल्क मरीजों की जांच करती हैं। अर्थ उनके लिए मायने नहीं रखता, अनावश्यक जांच वो लिखती भी नहीं, उनका अनुभव मशीनों पर भारी है। वह लोगों की मदद का बस मौका देखती हैं। छात्राओं से उन्होंने कभी फीस नहीं लिया उल्टे यथासंभव मदद किया। उन्होंने 1970 में शासकीय सेवा शुरू किया, 2006 में रिटायर्ड होने के बाद पहली बार निजी प्रैक्टिस शुरू की। जिले में डॉ. सुचित्रा त्रिपाठी ने ही सबसे पहले इंदौर जाकर लेप्रोस्कोपी सर्जरी सीखी थी फिर कई हजार लेप्रोस्कोपी फैमिली प्लानिंग की।
वह बताती हैं 1955 का समय था, मैं कि 8 साल की थी, पापा डॉ. छबिनाथ त्रिपाठी के क्लीनिक गई थी। आज जहां डिनशा आईसक्रीम की दुकान है वहां उनका कृष्णा मेडिकल हॉल था। वहां सब कहते थे कि डॉ. छबिनाथ त्रिपाठी की कुर्सी पर कौन बैठेगा, तो मैं पूरे मन कहती कि मैं। यह वही समय था जब मैंने डॉक्टर बनने की ठानी। 79 साल की उम्र में प्रैक्टिस जारी है किसी दिन मरीज को नहीं देखती तो मेरी तबियत खराब हो जाती है। आखिरी सांस तक मरीजों की सेवा करना मेरा लक्ष्य। मैंने ताउम्र वही किया जो ईश्वर ने मुझसे कराया। माध्यम मैं बनी पर करता तो वही है। अध्यात्म की मुझे बचपन से समझ है यह मेरी मां और दादी की देन है।
मेरे नाना डॉ. दुर्गेश्वर नंदे जो रायगढ़ के पहले क्वालिफाईड डॉक्टर थे की विरासत को मेरे पिता ने आगे बढाया। नानाजी सारंगढ़ राजा के फिजिशियन थे। ठीक इसी तरह पापा भी राजा चक्रधर सिंह के डॉक्टर होने के साथ जिला अस्पताल में लोगों को देखते। उनके दवा का ज्ञान अद्भुत था। तब कुछ दवाईयों को मिलाकर डॉक्टर दवाई बनाते थे। मुंहजुबानी उन्हें दवाओं के सारे कंपोजिशन याद थे वह चलती फिरती किताब थे।
5 साल में एक लाख मरीज का हिसाब
डॉ. सुचित्रा त्रिपाठी के लिए डॉक्टरी पेशे में कई दफे मुश्किलें आईं पर उन्होंने उसे हंसकर और ईश्वर पर छोड़ दिया। 38 साल के अपने शासकीय नौकरी में वह बिलासपुर, खरसिया, रीवा जैसे जगहों पर अपनी सेवाएं दी। चूंकि वह रायगढ़ के सबसे बड़े राजनीति घराने औऱ प्रतिष्ठित परिवार की बेटी हैं। रायगढ़ के पहले सांसद और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पंडित किशोरी मोहन त्रिपाठी उनके बड़े पिता थे और पंडित जी सबसे प्रिय सुची नानी ही थी। तो उन पर राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने के लिए 70-80 दशक के दिग्गज नेताओं ने एड़ी चोटी का दम लगा दिया पर वह डॉक्टरी नहीं छोड़ूंगी के समीकरण सबको देती। वह बताती कि हर दिन 50 मरीज देखती हूं महीने का के 1500 तो साल के करीब 20 हजार ऐसे में पांच साल में 1 लाख मरीज की सेवा करती हूं नेता या विधायक बनकर मैं पांच साल में क्या इतने लोगों की मदद कर पाऊंगी उनके इस एक समीकरण के आगे सब चुप हो जाते। ग्वालियर से 1968 में एमबीबीएस करने के बाद उन्होंने रीवा मेडिकल कॉलेज से 1976 में स्त्री एवं प्रसूति रोग विशेषज्ञ बनी। सूची नानी कहती हैं कि तकलीफ में आया मरीज जब मेरे पास से राहत पाकर निकलता है या फिर उसकी अवस्था में सुधार आता है तो सुकून मिलता है। जब-जब मुझे मदद की जरूरत थी ईश्वर ने मदद की जिससे मैंने सही समय पर सही निर्णय लिए। भगवान में मुझे प्रैक्टिस की दौड़ से बचाया, राजनीति की दौड़ से बचाया। 55 साल हो गए प्रैक्टिस कर रही हूं अब तो सिर्फ जरूरतमंदो की कर रही। शरीर साथ देगा तो करती रहूंगी किसी दिन मरीज को परामर्थ नहीं दिया जांच नहीं की तो मैं बीमार हो जाती हूं।

पिता की चाह थी डॉक्टर बनूं : डॉ. राजकुमार गुप्ता

सर्वाइकल (गले का अकड़ जाना) जो बीमारी पहले 50-60 साल आयुवर्ग के लोगों में होती थी वह आजकल 14-16 साल के बच्चों में होने लगी है। अनियमित दिनचर्या के साथ-साथ मोबाईल और टीवी लगातार चलाने से अब बच्चों में सर्वाइकल की समस्याएं आने लगी हैं। लोगों की बिंज वाच यानी लागातर किसी कार्य को करने से रूकना होगा अन्यथा उसका आपके गले और रीढ़ की हड्डी पर बुरा असर होगा। यह कहना है जिला अस्पताल के हड्डी रोग विशेषज्ञ डॉ. राजकुमार गुप्ता है। डॉ. गुप्ता कहते हैं कि अब की जनेरेशन के लोगों की हड्डियों में वैसा ताकत नहीं रह गई है जो एक जनेरेशन पहले तक थी। इसके बावजूद गलत खानपान से हड्डियों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। तकनीकी युग में लोगों के पास समय नहीं है वह इलाज को जल्दी चाहता है जो इलाज समय लेकर ठीक हो सकता है वह इसके लिए सर्जरी कराने को भी तैयार है। लोगों को अब समझना होगा कि रोग उनके हिसाब से ठीक नहीं होता। 22 साल से सरकारी संस्थान में सेवा दे रहे डॉ. गुप्ता की शुरुआत 2003 में लैलूंगा के लमडांड पीएचसी के साथ पहुंचविहीन ग्राम में पदस्थापना से हुई। हड्डी रोग विशेषज्ञ से पहले जब वो एमबीबीएस से तब तो पोस्टिंग के दूसरे दिन दुर्गम क्षेत्र में जाकर महिला की डिलीवरी करानी पड़ी, कम रिसोर्स में गंभीर हालत में उन्होंने नवजात की जान बचाई। इसके अलावा सर्पदंश, जहर खुरानी के कई मामलों के समय रहते वहां पहुंच कर ठीक करना। लैलूंगा और उसके आसपास के क्षेत्रों में हड्डी रोग से संबंधित सबसे ज्यादा मामले हैं पर अज्ञानता और गलत इलाज के कारण लोग समस्याओं से घिरे रहते हैं ऐसे में डॉ. गुप्ता ने यथासंभव लोगों को सही उपचार दिया।
जिला मुख्यालय में 2016 से पदस्थापना से वह हड्डी रोग से जुड़ी समस्याओं के मरीजों का सफल इलाज कर वापस भेज रहे हैं। इनकी टीम ने जन्मजात टेढ़े-मेढ़े पैर (क्लब फुट) को ठीक करने में प्रदेश स्तर पर सफलता प्राप्त की है। दूसरे जिले के क्लब फुट के मरीज जिला अस्पताल में इलाज को आते हैं।
पुसौर के तुरंगा के किसान परिवार से तालुल्क रखने वाले 50 वर्षीय डॉ. राजकुमार गुप्ता अपने परिवार में एकलौते डॉक्टर हैं, उन्हें डॉक्टर बनने के लिए उनके पिता ने प्रेरित किया। पिता ने उन्हें 12वीं पास करने के बाद 1995 में इंदौर भेजा क्योंकि गांव के बच्चे पीएससी की तैयारी के लिए वहां जा रहे थे ऐसे में उनके पिता ने अपने बेटे के डॉक्टर बनाने की सोची और कहा जितना समय लगे लो और डॉक्टर बनकर आना। 1997 में उनका चयन जबलपुर मेडिकल कॉलेज में हुआ जहां से एमबीबीएस करने के बाद 2006-2008 में रायपुर मेडिकल कॉलेज से हड्डी रोग में मास्टरी हासिल की। ग्रामीण परिवेश के होने के कारण वह निस्वार्थ भाव से जिला अस्पताल में अपनी सेवाएं दे रहे हैं और अपने पिता के सपने को जी रहे हैं।

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