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बरमकेला

भगवान विश्वकर्मा द्वारा निर्मित केवटीन देउल शिव मंदिर में भक्तों का तांता

सावन सोमवार को लगती है भक्तों का तांता, मनोकामना होती है पूरी

lochan Gupta
Last updated: July 14, 2025 12:33 am
By lochan Gupta July 14, 2025
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4 Min Read

बरमकेला। हिंदुओं के लिए सावन एक ऐसा पवित्र महीना है जो भगवान शिव को समर्पित है। मान्यता है कि इस महीना और खासकर सोमवार को देवों के देव महादेव की पूजा अर्चना की जाय तो मनोकामनाएं पूरी होती है। यही कारण है कि गांव से लेकर नगर तक हर जगह शिवालयों में जलाभिषेक कर पूजा अर्चना करने भक्तों का तांता लगा रहता है। बरमकेला विकासखण्ड में कुछ ऐसे शिवालय है जहाँ स्वयंभू शिव विराजमान हैं।
जिसमें सरिया के समीपस्थ पुजेरीपाली स्थित केवटीन देऊल शिव मंदिर का सबसे अलग महत्व है। यह छठवीं शताब्दी का पुरातन शिव मंदिर है और मान्यता है कि इस मंदिर का निर्माण स्वयं भगवान विश्वकर्मा ने किया था और यहाँ स्वयंभू शिव विराजमान है।
इस सम्बन्ध में जिला पुरातत्व समिति के सदस्य रहे पत्रकार मोहन नायक द्वारा जुटायी गई जानकारी के अनुसार पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही जनश्रुति के अनुसार इस मंदिर को एक ही रात में ही निर्माण करना था, वह भी किसी भी ब्यक्ति के जगने के पहले। लेकिन केेंवट जाति की एक महिला ब्रम्ह मुहूर्त में उठकर ढेंकी से अपना कार्य करने लगी, जिसकी आवाज शिल्पी विश्वकर्मा देव तक पहुंची, लोग जग गए इसकी जानकारी मिलने पर निर्माणकर्ता विश्वकर्मा देव ने मंदिर अंतिम चरण में था फिर भी इस मंदिर के कलश स्तंभ आदि के निर्माण को अधूरा ही छोड़ दिया। जो आज भी ऐसे ही है। इस कारण इस मंदिर का नामकरण केवटिन देऊल शिव मंदिर है। लोग इस मंदिर को पाताल से जुड़ा मानते हैं और पूजा विधान में जल से शिवलिंग का अभिषेक करते हुए जल भराव करने की कोशिश की जाती रही है और आज तक शिव लिंग का जल भराव नहीं कर पाए हैं। इस बात को यहाँ के पुजारी अभिमन्यु भी मानते एवं बताते हैं।
उल्लेखनीय है कि केवटिन देऊल शिव मंदिर पूर्व की ओर मुख वाला है और इसमें एक चौकोर गर्भगृह, अंतराल और एक मुख-मंडप है।


मुख-मंडप एक आधुनिक निर्माण है। मंदिर अपने दरवाजे के फ्रेम को छोडक़र ईंटों से बना है। मंदिर का विमान पंच-रथ पैटर्न का अनुसरण करता है। अधिष्ठान में खुर, कुंभ, कलश, अंतरपट्ट और कपोत से बनी कई साँचे हैं। कुंभ साँचे पर चंद्रशाला की आकृतियाँ उकेरी गई हैं और कलश को पत्तों की आकृतियों से सजाया गया है। जंघा को दो स्तरों में विभाजित किया गया है, जिन्हें बंधन साँचे द्वारा अलग किया गया है। निचले स्तर पर बाड़ा-रथ में एक गहरा आला है, कर्ण-रथ पर अधूरे चंद्रशाला रूपांकन हैं और प्रति-रथों पर अल्पविकसित आयताकार उभार हैं। ऊपरी स्तर पर रथों के ऊपर अनियमित डिज़ाइन हैं ; कुछ स्थानों पर, हम आले और अन्य क्षेत्रों में अल्पविकसित डिज़ाइन देखते हैं। लैटिना नागर शैली के शिखर में छह भूमियाँ (स्तर) हैं। एक भूमि-अमलक प्रत्येक भूमि को सीमांकित करता है। कर्ण-रथों पर बरामदे के ऊपर भारवाहक रखे जाते हैं। इस तरह से इस मंदिर की न सिर्फ पुरातात्विक, ऐतिहासिक बल्कि धार्मिक महत्व है। इन्ही सब विशेताओं के कारण न सिर्फ दूर दूर से लोग जलाभिषेक कर पूजा अर्चना करने आते हैं बल्कि कई बार विदेशी भी यहाँ आते रहे हैं। ऐसे में सावन महीना में और खासकर सोमवार को यहाँ जरूर आना चाहिए। हालांकि इस दिन भक्तों की लंबी लम्बी क़तारें लगी रहती है किंतु सावन मास में यहाँ जलाभिषेक एवं पूजा अर्चना का बड़ा महत्व एवं पुण्य है।
-मोहन नायक(पत्रकार), बरमकेला

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