रायगढ़। विधानसभा चुनाव को लेकर बढ़ती सरगर्मी के बीच कांग्रेस-बीजेपी सियासी पारा के नाप-तौल में भले ही जुटी है। लेकिन कार्यकर्ताओं की मायूसी पर उनकी नजर फिलहाल तो नहीं है। चुनावी मैनेजमेंट और कार्यकर्ताओं की इस महत्वपूर्ण गंठजोड़ से दोनों ही राजनीतिक दलों में चुप्पी समझ से परे है। कार्यकर्ताओं के बल पर बेहतर चुनावी मैनेजमेंट का ताल ठोकने वाले दोनों ही दलों के नेता आखिर कब उसकी सुध लेंगे? फिलहाल इसे लेकर कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन इतना जरूर है कि चुनावी मैनेजमेंट से नाराज कार्यकर्ताओं की खामोशी आने वाले दिनों में किसी तूफान के आने का संकेत जरूर दे रहे हैं। बताया जाता है कि रायगढ़ सीट पर चुनाव संचालन के लिए दोनों ही राजनीतिक दलों ने टीम तैयार की है। लेकिन टीम के कार्यकर्ताओं में आपसी ताल-मेल की कमी से दोनों ही दलों के बूथ स्तर के कार्यकर्ता खुश नहीं है। जिसका खामियाजा आने वाले दिनों में भुगतना पड़ सकता है। राजनीति की जानकारों की माने तो रायगढ़ जिला मुख्यालय की सीट को लेकर भाजपा के अलावा कांग्रेस भी विशेष रणनीति बनाकर चुनाव संचालन करने का दावा करती है। लेकिन जमीनी स्तर पर ऐसी कोई तस्वीर नजर नहीं आती। चुनावी मैनेजमेंट से बेहतर परिणाम की उम्मीद पालना कागजों तक ही सीमित है। उसे बूथ स्तर के अलावा अन्य चुनावी कार्य को साधने के लिए बेहतर मैनेजमेंट की आवश्यकता प्रतीत होती है। दोनों ही राजनीतिक दल चुनाव कार्यालय खोलकर बेहतर मैनेजमेंट का स्वांग रच रहे है। लेकिन उससे बेहतर परिणाम की उम्मीद तो नहीं की जा सकती। चुनाव कार्य से संबंधित सभी कार्यों को लेकर संचालन समिति को गंभीरता और सतर्कता बरतना आवश्यक माना जाता है। केवल खाना पूर्ति करने की रणनीति बनाने से मामला उलट सकता है। कार्यकर्ता किसी भी पार्टी की सबसे बड़ी ताकत होती है। लेकिन जिस शैली से इस चुनाव में दोनों ही राजनीतिक दल के लोग चुनाव का संचालन कर रहे हैं उसे लगता है कि चुनाव परिणाम उनकी झोली में आ चुका है। ऐसी रणनीति पर काम करने वाली चुनाव संचालन समिति सीधे तौर पर अपनी ही पैर पर कुल्हाड़ी मरने जैसा काम करता दिख रहा है।
कार्यकर्ताओं के दमखम की नहीं परवाह
चुनाव की तारीख घोषित होने से पहले ही राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता पार्टी के काम में जुटे रहते हैं। घर-बार छोडक़र राजनीतिक दलों के हर काम के लिए वक्त निकलते हैं। परंतु चुनावी समय में उनकी कदर नहीं होने का दुख उन्हें कचोटता जा रहा है। माना जाता है कि मंडल और बूथ स्तर के इन कार्यकर्ताओं के दम पर चुनाव लड़े जाते हैं। उनके कामकाज की समीक्षा होती है, कसीदे पढ़े जाते हैं। लेकिन उनका कुशल मार्गदर्शन करना तो संचालन समिति पर ही निर्भर करता है। बिना कुशल मार्गदर्शन के चुनावी काम-काज में जुटे कार्यकर्ताओं के भीतर मचते तूफान को भांपने की कोई कोशिश भी नहीं हो रही है। दोनों ही राजनीतिक दलों में फिलहाल इसकी सुध किसी को नहीं है। इस बेपरवाही का क्या परिणाम होगा? फिलहाल कुछ कह पाना मुनासिब नहीं है।
चुनावी मैनेजमेंट का अता-पता नहीं, मैदान जीतने का दावा!
कांग्रेस-भाजपा दोनों ही दल बेपरवाह, कार्यकर्ताओं में चुप्पी का क्या है राज?
