जन्म: 26 जून 1838, कठालपाड़ा, नैहाटी (बंगाल) निधन : 8 अप्रैल 1894
जयंती वर्ष 26 जून 2025- 187वीं जयंती
उत्तर 24 परगना के नैहाट्टी में कटहलों वाले पाड़ा से उठकर जिनकी लेखनी ने राष्ट्र की आत्मा को झकझोर दिया
भूमिका: शब्दों से गढ़ा गया एक राष्ट्र
जब किसी राष्ट्र का भविष्य अंधकार में डूबा हो, तब वहां केवल तलवारें नहीं, कवियों की कलम भी तलवार बन जाती है। उन्नीसवीं शताब्दी के भारतीय नवजागरण में जिस एक नाम ने जनचेतना को गहराई से प्रभावित किया, वह था- बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय। ‘वंदे मातरम्’ केवल एक गीत नहीं था, यह उस भारत माता का आह्वान था जो अंग्रेजी शासन की बेडिय़ों में जकड़ी हुई थी।
कठालपाड़ा: कटहलों के पाड़ा से उठी एक चेतना
बंकिमचंद्र का जन्म 26 जून 1838 को बंगाल के उत्तर 24 परगना जि़ले के नौहाटी के पास स्थित कठालपाड़ा गाँव में हुआ था।
कठालपाड़ा — जिसका अर्थ होता है कटहल का मुहल्ला — संभवत: उस समय इस गाँव में कटहलों की बहुतायत रही होगी।
यह वही धरती थी जहाँ से बंगाल के पुनर्जागरण की आँधी उठी। बंकिम का परिवार मूलत: हुगली जि़ले के देशमुखों गांव से था, पर उनके परदादा रामहरि चट्टोपाध्याय अपने नाना रधुदेव घोषाल की संपत्ति संभालने यहाँ आ बसे। उनके पिता यादवचंद्र चट्टोपाध्याय ब्रिटिश प्रशासन में डिप्टी मजिस्ट्रेट के पद पर रहे। 1840 में उन्होंने कठालपाड़ा में एक भव्य भवन का निर्माण करवाया, जो आगे चलकर बंगाल की सांस्कृतिक क्रांति का केंद्र बना।
बाल्यकाल और शिक्षा: मेदिनीपुर से प्रेसीडेंसी कॉलेज तक
बंकिम की प्रारंभिक शिक्षा मेदिनीपुर में हुई, जहां उनके पिता नियुक्त थे। एफ. टिड और सिनक्लेयर जैसे शिक्षकों ने उनकी प्रतिभा को पहचाना। बाद में उन्होंने हुगली कॉलेज (अब मोहसिन कॉलेज) और प्रेसीडेंसी कॉलेज, कलकत्ता से शिक्षा प्राप्त की। वर्ष 1857 में बी.ए. की डिग्री लेकर वे इस डिग्री को प्राप्त करने वाले प्रथम भारतीयों में एक बन गए। 1869 में कानून की डिग्री प्राप्त करने के बाद उनकी नियुक्ति डिप्टी मजिस्ट्रेट के रूप में हुई।
विवाह, पारिवारिक जीवन और निजी पीड़ा
बंकिम का पहला विवाह मात्र 10 वर्ष 8 माह की आयु में 5 वर्षीया मोहिनी से हुआ, जो आगे चलकर गंभीर रूप से बीमार होकर चल बसीं। इस पीड़ा ने बंकिम को भीतर तक तोड़ दिया। दूसरा विवाह 1860 में राजलक्ष्मी देवी से हुआ। उनकी तीन बेटियाँ- शरतकुमारी, नीलाब्जकुमारी और उत्पलाकुमारी – थीं। उत्पला की दुखद मृत्यु और उसके पति मतीन्द्र पर हत्या का आरोप, और फिर बंकिम का उसे अपने तर्क से फांसी से बचा लेना, उनके संवेदनशील और क्षमाशील हृदय की गहराई को दर्शाता है।
‘बंगदर्शन’ और साहित्यिक उथल-पुथल बंकिम का कठालपाड़ा स्थित घर बाद में एक साहित्यिक तीर्थ बन गया। यहीं से प्रकाशित हुई बांग्ला की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘बंगदर्शन’, जिसके चार वर्ष तक वे स्वयं संपादक रहे। इसके साथ ही उन्होंने ‘प्रचार’, ‘भ्रमर’, ‘आर्यदर्शन’, ‘बांधव’ जैसी पत्रिकाएं भी प्रारंभ कीं।
यह वह युग था जब पत्रिकाएं विचार क्रांति के वाहन बन चुकी थीं, और बंकिम इनका सारथी।
आनंदमठ: क्रांति की ज्वाला
1872 में प्रकाशित उपन्यास ‘आनंदमठ’, बंकिमचंद्र की सबसे अधिक चर्चित कृति बनी। इस उपन्यास में उत्तर बंगाल के 1773 के संन्यासी विद्रोह को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि बनाकर राष्ट्रवादी चेतना का उद्घोष किया गया।
इसी उपन्यास में ‘वंदे मातरम्’ गीत पहली बार आया – जो आगे चलकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का अनौपचारिक राष्ट्रीय गान बना। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने इसकी धुन बनाई। भगत सिंह, बिस्मिल, राजगुरु, अशफाक जैसे क्रांतिकारियों ने ‘वंदे मातरम्’ गाते हुए फांसी के फंदे को चूमा।
साहित्यिक योगदान: जहां प्रेम, पीड़ा और प्रजा तीनों जीवित थे बंकिम की रचनाएं केवल कल्पना नहीं, समाज और इतिहास की आँखों देखी थीं। उनकी प्रमुख रचनाएं: राजमोहन’स वाइफ (अंग्रेज़ी में, अप्रकाशित) दुर्गेशनंदिनी (1865)- बांग्ला की पहली ऐतिहासिक रचना,,कपालकुंडला- प्रेम और वेदना का उत्कृष्ट उदाहरण विषवृक्ष, राजसिंह, मृणालिनी, कृष्णकांतेर विल, देवी चौधरानी, मोचीराम, सीताराम (1886-अंतिम उपन्यास) उनकी कविताएं ‘ललिता ओ मानस’ संग्रह में संकलित हैं। उन्होंने धर्म, समाज और नीति पर कई निबंध भी लिखे- जिनमें ‘धर्मतत्त्व’ और ‘समस्या और समाधान’ उल्लेखनीय हैं।
बंकिम भवन: अब इतिहास का तीर्थ बंकिमचंद्र का कठालपाड़ा स्थित भवन वर्षों तक उपेक्षित रहा, पर 1948 में राज्य सरकार ने इसका अधिग्रहण किया और
1999 में इसे ‘बंकिम भवन गवेषणा केंद्र’ के रूप में पुनर्स्थापित किया गया।
यह भवन आज भी साहित्य प्रेमियों और शोधार्थियों के लिए श्रद्धा का केंद्र बना हुआ है। 11 सितंबर 2016 को मुझे इस ऐतिहासिक स्थल को देखने का सौभाग्य मिला, जब मैं अपने कवि मित्र और खोजी पत्रकार मुरली चौधरी (चुंचुड़ा) के साथ वहां गया।
बंकिम: सिर्फ लेखक नहीं, राष्ट्रीय चेतना के पुरोधा । यदि हम भारतीय साहित्य में उनके स्थान को देखें, तो जैसे राजनीति में तिलक ‘स्वराज्य’ का नारा लेकर आए, वैसे ही बंकिमचंद्र ‘वंदे मातरम्’ का शंख फूंकते हैं। वे एकमात्र ऐसे रचनाकार रहे जिनकी कृतियों का भारतीय भाषाओं में सर्वाधिक अनुवाद हुआ, जिनमें हिंदी सबसे प्रमुख है। बंकिम और शरतचंद्र- ये दो नाम ऐसे हैं जिनकी रचनाएं आज भी हर वर्ग में, हर पीढ़ी में पढ़ी जाती हैं।
उपसंहार: आत्म-अध्ययन से जन्मा साहित्य बंकिम का साहित्य आत्म-अन्वेषण का आईना था।
उनके पात्र मध्यम वर्ग के लोग थ- संघर्षरत, आस्थावान, और परिवर्तन के प्यासे।
उनकी रचनाओं में केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि जनचेतना, सांस्कृतिक गौरव और आत्म-मंथन के तत्व मिलते हैं।
उनके साहित्यिक काल को कलात्मक सृजन का काल नहीं कहा जा सकता, पर यही वह समय था जब राष्ट्र को लेखनी की मशाल की जरूरत थी- और बंकिम वह मशाल लेकर आगे बढ़े।
श्रद्धांजलि–बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की सेवा-निवृत्ति 1891 में हुई और 8 अप्रैल 1894 को उन्होंने इस नश्वर संसार को अलविदा कहा।
पर उनकी कलम से निकला ‘वंदे मातरम्’ आज भी हर भारतीय के हृदय में धडक़ता है।
ऐसे युगनायक को कोटि-कोटि नमन।