रायगढ़। विधानसभा के आम चुनाव में मतदान होने के 3 दिन बाद अब राजनीतिक दलों में चुनावी समीक्षा की खबरें छन-छन कर आ रही है। इसके साथ ही राजनीतिक दलों से जुड़े लोगों के जुबान पर एक हिंदी फिल्म का डायलॉग भी खूब सुना जा रहा है। ‘‘मुझे तो अपनों ने लूटा गैरों में कहां दम था, मेरी किश्ती वहीं डूबी जहां पानी कम था’’ इस फिल्मी में डायलॉग के हर शब्द पर गौर करें तो यह एक। राजनीतिक दल पर पूरी तरह फिट बैठ रहा है। लेकिन इन दिनों यह डायलॉग खूब मजे से हर पार्टी के कार्यकर्ता के जुबान पर है। रायगढ़ जिले में इस बार का विधानसभा चुनाव कई मायनों में बीते विधानसभा चुनाव से अलग ही रहा। इसके प्रमुख वजह यह बताई जा रही है कि सत्ता से बाहर रही भाजपा का पूरा फोकस गंभीरता से चुनाव लडऩा रहा। तो कांग्रेस सत्ता में रहकर भी वह गंभीरता दिखाने में कामयाब नजर नहीं आई। अब मतदान के बाद दोनों ही प्रमुख राजनीतिक दल अपने-अपने तरीके से चुनाव की समीक्षा कर रहे हैं। राजनीतिक सूत्रों की माने तो भाजपा संगठन द्वारा इस चुनाव की समीक्षा की जा रही है। जिसमें जिले के सभी विधानसभा क्षेत्र में मतदान के प्रतिशत से लेकर कार्यकर्ताओं द्वारा टीमवर्क के साथ किए गए कार्यों की समीक्षा की जा रही है। बंद कमरों में हो रही समीक्षा में दोनों ही दलों में भीतरघात होने की बात सामने आ रही है। सूत्रों की माने तो भाजपा ने कांग्रेस से पहले टिकट वितरण का प्रत्याशियों और संगठन को पूरा मौका दिया था कि वह पार्टी से टिकट के अन्य दावेदारों व घोषित प्रत्याशी के बीच आपसी सामंजस्य से बैठाकर पार्टी में बगावत और भीतरघात होने को रोके। भाजपा इस बार काफी हद तक सफल रही, लेकिन कांग्रेस में टिकट वितरण को लेकर हुई लेट लतीफी का असर इस चुनाव में साफ नजर आया। इसके अलावा टिकट के अन्य दावेदारों सहित संगठन के सभी वर्गों को एकजुट करने कांग्रेस संभवत सफल नहीं हुई। इस चुनाव में तहज औपचारिकता निभाने कांग्रेस कार्यकर्ता अलग-अलग घड़ों में बंटे नजर आए। ऐसी स्थिति में चुनाव की समीक्षा भी महज औपचारिकता की नजर आती है। हालांकि सबकी नजर 3 दिसंबर को होने वाले मतगणना पर है। जिसमें कुछ चमत्कार होने की उम्मीद अब शेष है। बात रायगढ़ विधानसभा सीट की करें तो भाजपा ने जीस सधी हुई रणनीति का परिचय दिया। जबकि कांग्रेस में बिखराव और चुनावी मैनेजमेंट में अनुभवहीनता साफ तौर पर नजर आई। राजनीति के जानकारों की माने तो रायगढ़ सीट से भाजपा का प्रत्याशी घोषित होने के बाद भाजपा ने सभी रणनीति के अनुभवियों से चुनाव का संचालन कराया। वहीं पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं में सामंजस बिठाने में सफल हासिल कर ली। बताया जाता है कि भाजपा प्रत्याशी के खिलाफ एक महिला नेत्री ने जब मोर्चा खोल दिया तो संगठन की ओर से जिला और प्रदेश स्तर के नेताओं ने समझाने की कोशिश की, लेकिन भाजपा की उस महिला नेत्री ने जब बात नहीं मानी और चुनाव मैदान में कूद गई तो पार्टी ने उसके हर हथकण्डे को भांफ कर उसे उसके ही हाल पर छोड़ दिया, और एक नई रणनीति के तहत चुनाव का काम शुरू किया। जिसमें भाजपा को इतनी सफलता तो जरूर मिली कि रायगढ़ विधानसभा क्षेत्र में खुले तौर पर भीतरघात की कहीं गुंजाइश नजर नहीं आई। बताया जाता है कि भाजपा ने टिकट की दौड़ में शामिल पूर्व विधायक विजय अग्रवाल को चुनाव संचालन की कमान सौंप दी। और अन्य दावेदारों सुनील रामदास, उमेश अग्रवाल, गुरूपाल भल्ला, गौतम अग्रवाल, विकास केडिया, विलिस गुप्ता, बृजेश गुप्ता, रथु गुप्ता को चुनाव में बड़ी जिम्मेदारी देकर चुनाव को सकारात्मक दिशा में मोड़ दिया। जो संगठन स्तर पर नजर भी आया और रायगढ़ विधानसभा क्षेत्र में भाजपा के भीतर भीतरघात की संभावना नगण्य होती नजर आई। वहीं कांग्रेस में टिकट वितरण को लेकर लेट लतीफी होने का खामियाजा देखने को मिला। बताया जाता है कि रायगढ़ सीट के लिए कांग्रेस से भी टिकट के दावेदारों की लंबी फेहरिस्त रही। जिसमें प्रकाश नायक से लेकर डॉ. राजू, अरूण गुप्ता, जयंत ठेठवार, शंकर लाल अग्रवाल, अनिल अग्रवाल, चीकू, संगीता गुप्ता प्रबल दावेदार थे। हालांकि देर से ही सही परंतु अंतत: प्रकाश नायक को टिकट मिला और उन्होंने डैमेज कंट्रोल करने का भरकम प्रयास किया। लेकिन ऐसा नहीं लगता कि वह और शहर कांग्रेस डैमेज कंट्रोल करने में पूर्णता सफल साबित हुई। राजनीति के जानकारों की माने तो रायगढ़ में कांग्रेस का एक गुट तो पूरी तरह चुनाव से दूर रहा। स्टेशन चौक मुख्य डाकघर के सामने चाय की दुकान के समक्ष बैठकर मजे लेते रहा। तो वही टिकट फाइनल होने के बाद प्रमुख दावेदारों ने महज कांग्रेस के साथ खड़ा होने की औपचारिकता निभाई और मतदान होने तक कहीं भी खुले रूप में पार्टी के साथ नजर नहीं आए। जिसका असर इस चुनाव पर पडऩा तो लाजमी है। अब 3 दिसंबर को किसी चौंकाने वाले परिणाम का इंतजार करने के अलावा क्या बचा है? सही मायने में फिल्मी डायलॉग इस पर सटीक बैठता है। ‘‘मुझे तो अपनों ने लूटा गैरों में कहां दम था मेरी कश्ती वहीं डूबी जहां पानी कम था’’।
अपनों को समेटने में फिसलते हाथ
जिले के अन्य सीटों की बात की जाए तो, कमोबेस हर जगह ऐसी ही स्थिति नजर आई। सत्तासीन नेताओं और संगठन में तालमेल की कमी कार्यकर्ताओं को खलती रही। खरसिया धरमजयगढ़ और लैलूंगा में कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में हताशा चुनावी मैनेजमेंट की गवाही देता रहा। लेकिन संगठन स्तर पर कांग्रेस के नेता महज चुनावी डुगड़ुगी बजाते नजर आए। राजनीति के जानकारों की माने तो खरसिया, लैलूंगा और धरमजयगढ़ में चुनावी मैनेजमेंट ऐसे हाथों में रहा जिसमें जमीनी हकीकत को समझने की क्षमता बेहद नगण्य रही। जिसका असर पोलिंग बूथ तक नजर आया पार्टी के समर्पित कार्यकर्ताओं की अनदेखी करने की शिकायत जहां सत्ता के दौर से शुरू हुई, उस पर विराम मतदान की तिथि तक नहीं लग पाई। जिसका खामियाजा तो कांग्रेस को ही भुगतना पड़ सकता है। दूसरी तरफ भाजपा ने चुनावी शंखनाद से पहले ही इन क्षेत्रों में संगठन स्तर पर एक अभियान चलाकर कार्यकर्ताओं में ऊर्जा का संचार करने में सफलता पाई। वही कार्यकर्ता एकजुट नजर आए। जनहित के मुद्दों को लेकर सडक़ की लड़ाई लडक़र भाजपा ने कार्यकर्ताओं को जहां आम जनता से सीधे जोड़ दिया। वहीं जन समस्याओं को लेकर कार्यकर्ताओं की मुखरता से आम जनमानस में भाजपा के नेतृत्व क्षमता को प्रतिपादित करने का बेहतर अवसर दिया। खरसिया से लेकर धरमजयगढ़ और लैलूंगा क्षेत्र में कांग्रेस नेता अपने ही लोगों को समझाने और मनाने का स्वांग भी नहीं कर पाए, जिसकी राजनीति में मौजूदा जरूरत भी मान ली गई है। जिससे खरसिया और धरमजगह सीट के लिए अन्य की टिकट को लेकर प्रबल दावेदारी तो नहीं रही। लेकिन लैलूंगा क्षेत्र में कांग्रेस अपने ही लोगों के बिछाए जाल में उलझती रही। और चुनावी बीगुल बज गया। चुनावी शंखनाद के बाद भी कांग्रेस कार्यकर्ताओं की भावनाओं को ना समझने की कोशिश में रही। और ना ही नेताओं को समझने का कोई हुनर दिखा पाई। जिससे चुनाव पर भीतरघात की आग धधकती रही। जिला कांग्रेस की जिला अध्यक्ष को लैलूंगा से टिकट देकर पार्टी ने अपने दायित्वों की जिस तरह इतिश्री मान ली। उसे चुनावी वैतरणी पार करने की उम्मीद भला कार्यकर्ता कैसे कर सकता है। संगठन के नेताओं की शिकायत पर कुछ दिनों के लिए क्षेत्र से अलग करने का दाव तो खेल दिया। लेकिन कुछ ही दिन में वापसी से संगठन की शैली में नजर आ ही गई। टिकट के दावेदारों की महज एक बैठक कर सब ठीक होने का भ्रम पाल लेना, इस चुनाव में पार्टी को भारी पड़ सकता है।