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Reading: लैलूंगा में परिवारवाद की राजनीति से प्रलोभन के जुड़े तार
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NavinKadam > रायगढ़ > लैलूंगा में परिवारवाद की राजनीति से प्रलोभन के जुड़े तार
रायगढ़

लैलूंगा में परिवारवाद की राजनीति से प्रलोभन के जुड़े तार

मतदाताओं की चुप्पी क्या रंग दिखाएगी, भाजपा-कांग्रेस में घोषणाओं की बजती ढपली, घड़ों में बंटे कार्यकर्ताओं का फूट सकता है आक्रोस, दोनों दल में भितरघात की मुहिम

lochan Gupta
Last updated: November 15, 2023 1:33 am
By lochan Gupta November 15, 2023
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12 Min Read

रायगढ़। लैलूंगा विधानसभा क्षेत्र में राजनीतिक दल अपने-अपने घोषणा पत्र से आम जनता को अपने मोहपाश में लेने की कोशिश करते नजर आ रहे हैं। सीधे तौर पर जहां कांग्रेस अपनी घोषणा पत्र में जारी किए गए वादों को सरकार बनने पर दिए जाने का प्रलोभन देने में जुटी है, वहीं भाजपा की अपने घोषणा पत्र को मोदी की गारंटी बात कर आम जनता को प्रलोभन देने का प्रयास करती दिख रही है। आदिवासी बाहुल्य इस क्षेत्र में भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधे मुकाबले की स्थिति है, लेकिन इस क्षेत्र में मतदाताओं की चुप्पी कुछ और ही बयां करती दिख रही है। जैसे-जैसे मतदान की तारीख करीब आ रही है दोनों ही राजनीतिक आम जनता की स्थानीय समस्याओं को दरकिनार कर अपनी-अपनी घोषणाओं की डफली बजाते दिख रहे हैं। खास बात यह है कि दोनों ही राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं में नाराजगी है, कार्यकर्ता अपने-अपने नेतृत्व से खुश नहीं है। जिससे जनसंपर्क कार्यक्रमों में खास उत्साह की स्थिति नहीं दिखती। हालांकि दोनों ही राजनीतिक दल बेहतर प्रदर्शन के दावे करते नजर आ रहे हैं, लेकिन राजनीतिक दलों के प्रलोभन करने की जा रही घोषणाओं को लेकर फिलहाल चुप्पी ही नजर आती है। जिससे लगता है इस विधानसभा क्षेत्र में चुनावी समीकरण के गड़बड़ाने के आसार बनते जा रहे हैं। भाजपा का एक बड़ा घड़ा पार्टी में चल रहे परिवारवाद से असंतुष्ट है तो वहीं कांग्रेस में कुछ नेताओं की मनमानी से कार्यकर्ताओं कोपभाजन की स्थिति बन सकती है। सिर्फ घोषणाएं के भरोसे चुनावी नैया पार करने की इस रणनीति का कितना नफा और नुकसान होगा यह तो आने वाले वक्त में ही पता चल सकता है। लैलूंगा सीट को लेकर दोनों ही राजनीतिक दल गंभीर नहीं दिख रहे हैं। राजनीति के जानकारों की माने तो भाजपा में एक ही परिवार को तवज्जो मिलने से इस बार चुनावी समीकरण बिगड़ता नजर आ रहा है। बताया जाता है कि छत्तीसगढ़ राज्य गठन के बाद से एक ही परिवार को चुनाव मैदान में उतार कर भाजपा लगातार आम कार्यकर्ताओं की नाराजगी का कारण बन जा रहा है। यही वजह है कि मतदान के लिए तीन-चार दिन बचे होने के बाद भी भाजपा का प्रचार प्रसार जोर नहीं पकड़ पा रहा है लैलूंगा विकासखंड में कार्यकर्ता बेहद नाराज है, जिससे जनसंपर्क कार्यक्रमों में उत्साह की कमी साफ झलक रही है इसी तरह तमनार और परिसीमन क्षेत्र में भाजपा अपनी स्थिति सुधारने की जद्दोजहद में जरूर दिख रही है। परंतु यहां भी परिवारवाद से नाराज कार्यकर्ता इस चुनाव से स्वयं को दूर करते जा रहे हैं। जिससे भाजपा अपने चुनावी घोषणाओं के भरोसे ही दिख रही है। दूसरी तरफ कांग्रेस इस सीट में पूरी तरह से घड़ों में बंटी दिख रही है, जिसका असर प्रचार-प्रसार में भी साफ दिख रहा है। कांग्रेस को भूपेश सरकार की योजनाओं और चुनावी घोषणाओं पर पूरा भरोसा है कि उसे उसका लाभ मिल सकता है। लेकिन कांग्रेस में इस बार प्रत्याशी बदलने को लेकर एक घड़े में जहां नाराजगी है तो एक दूसरे घड़े में टिकट नहीं मिलने को लेकर भडक़े आक्रोश की आग अब तक ठंडी नहीं पड़ी है। जिसका खामियाजा कांग्रेस को इस चुनाव में भुगतना पड़ सकता है लैलूंगा तमनार और नए परिसीमन क्षेत्र में कांग्रेस प्रचार-प्रसार में कुछ खास स्थिति में तो फिलहाल नहीं दिखती लेकिन भूपेश सरकार की घोषणा को प्रचारित करने की कोशिश दिख रही है। अब आने वाले समय में मतदाता किस तरफ रूझान दिखाते हैं इसे चुनावी गणित पर असर नजर आएगा यह तो आने वाले वक्त में ही पता चल सकता है। लेकिन यह अभी तय है कि लैलूंगा सीट का रिजल्ट बेहद चौंकाने वाला हो सकता है। कांग्रेस और भाजपा के चुनावी समीकरण को निर्दलीय किसी निर्णायक स्थिति पर ले जाते हैं यह तो मतगणना के दिन ही स्पष्ट होगा।
प्रलोभन के लिए घोषणाओं का अंबार
इस चुनाव में कांग्रेस भाजपा दोनों ही दल पूरी तरह से जनता को चुनावी घोषणाओं के जाल में फांसने की रणनीति पर काम कर रही है। धान खरीदी, एक मुफ्त बोनस, कर्ज माफी, रसोई गैस सिलेंडर सस्ता, आवास योजना, गृह लक्ष्मी योजना, महतारी वंदन योजना, तेंदूपत्ता संग्राहकों की योजना, बिजली बिल माफ योजना ऐसी कई योजनाओं का जिक्र दोनों ही राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र में किए गए हैं। चुनावी घोषणाओं का असर एक खास वर्ग पर ही पड़ता है। यह सब जानते हैं लेकिन चुनावी फिजा बदलने की राजनीतिक कोशिशें लगातार हो रही है। क्षेत्रीय नेतृत्व की बात पर राजनीतिक दलों की चुप्पी हमेशा रही है। इस चुनाव में कौन किस पर भारी पड़ता है यह आने वाले वक्त में ही पता चल सकेगा। लेकिन महिला नेतृत्व को कमान सौंपने के पीछे पुरुष प्रधान राजनीति का षड्यंत्र भी लोगों के समझ में आता है। इस चुनाव में इस पर मोहर लगने की पूरी संभावना दिखती है।
हर दिन नई घोषणा क्या गुल खिलाएगी?
आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र और हर दिन एक नई घोषणा को लेकर तरह-तरह की चर्चा शुरू हो गई है। राजनीति के जानकारों की माने तो जागरुक होते ग्रामीण क्षेत्र के मतदाता भी यह चर्चा करते नजर आते हैं कि चुनाव के अंतिम दिन तक घोषणा जारी रहेगी। जिसका सीधा मतलब यह है कि मतदाता हर एक घोषणा, हर एक गारंटी पर गौर तो कर रही है। लेकिन अंतिम फैसला तो वोटिंग मशीन में ही बटन दबाकर लिया जाएगा। बड़े राजनीतिक दलों के लोक-लुभावन वादों और घोषणाओं का असर कितना होगा, यह मतगणना के दिन ही स्पष्ट हो पाएगा कि मतदाताओं ने कौन सा बटन दबाया था। आदर्श आचार संहिता के दौर में की गई चुनावी घोषणाओं की पोल भी उसी दिन खुलेगी। राजनीति के इस नए तुष्टिकरण की नीति पर मतदाता उसी दिन फैसला सुनाएंगे, उसकी गूंज भी राजनीतिक गलियारे में उसी दिन ही सुनी जा सकेगी।
राजनीतिक दल के प्रत्याशियों पर परिवारवाद का ठप्पा
लैलूंगा की इस सीट पर जो प्रत्याशी उतारे गए हैं। उन दोनों पर परिवार वाद का ठप्पा लगा है। कांग्रेस ने पूर्व विधायक के परिवार की बहू को जहां प्रत्याशी बनाया है। वहीं भाजपा भी पूर्व विधायक की पत्नी को इस बार चुनाव मैदान में उतार दिया है। खास बात यह है कि कांग्रेस के पूर्व विधायक स्वर्गीय हो चुके हैं। जबकि भाजपा के पूर्व विधायक तो 2018 का चुनाव भी हार चुके हैं। हारे हुए विधायक की पत्नी को टिकट देना भाजपा के लिए क्या परिणाम लाता है, उसे लेकर क्षेत्र की जनता अलग-अलग कयास लगाते नजर आते है। दूसरी तरफ परिवारवाद के इस खेल को बंद करने की दिशा में युवाओं का एक बड़ा तबका मुखर होता दिख रहा है। जिससे कांग्रेस भाजपा के परिवार वाद की रणनीति पर बड़ा असर पडऩे की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता।
प्रलोभन के लिए घोषणाओं का अंबार
इस चुनाव में कांग्रेस भाजपा दोनों ही दल पूरी तरह से जनता को चुनावी घोषणाओं के जाल में फांसने की रणनीति पर काम कर रही है। धान खरीदी, एक मुफ्त बोनस, कर्ज माफी, रसोई गैस सिलेंडर सस्ता, आवास योजना, गृह लक्ष्मी योजना, महतारी वंदन योजना, तेंदूपत्ता संग्राहकों की योजना, बिजली बिल माफ योजना ऐसी कई योजनाओं का जिक्र दोनों ही राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र में किए गए हैं। चुनावी घोषणाओं का असर एक खास वर्ग पर ही पड़ता है। यह सब जानते हैं लेकिन चुनावी फिजा बदलने की राजनीतिक कोशिशें लगातार हो रही है। क्षेत्रीय नेतृत्व की बात पर राजनीतिक दलों की चुप्पी हमेशा रही है। इस चुनाव में कौन किस पर भारी पड़ता है यह आने वाले वक्त में ही पता चल सकेगा। लेकिन महिला नेतृत्व को कमान सौंपने के पीछे पुरुष प्रधान राजनीति का षड्यंत्र भी लोगों के समझ में आता है। इस चुनाव में इस पर मोहर लगने की पूरी संभावना दिखती है।
मुद्दे की लड़ाई की ताक में जनता!
इस चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के शासनकाल की तुलना हो रही है। भाजपा से जहां एक ही परिवार को क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिला। वहीं कांग्रेस के अलग-अलग समय में जन समस्याओं के निराकरण में तत्कालीन नेतृत्व कितना सक्रिय रहा छत्तीसगढ़ राज्य गठन के बाद इस आदिवासी अंचल में विकास की गाथा लिखने का दावा करने वाले राजनेताओं की इस चुनाव को अग्नि परीक्षा के तौर पर देखा जा रहा है। भाजपा और कांग्रेस प्रत्याशी जहां एक तरफ अपनी-अपनी घोषणाओं के सहारे जनता का दिल जीतने की ख्वाहिश पाले हैं। वहीं लैलूंगा विकासखंड तमनार विकासखंड और परिसीमन क्षेत्र की जनता अपने-अपने मुद्दों को लेकर नेतृत्व से आस लगाए बैठे नजर आते हैं। इस चुनाव में आम मुद्दों को छोडक़र कांग्रेस-भाजपा दोनों ही दल में वोट के लिए नोट का खेल शुरू कर चुकी है। क्षेत्र की भोली-भाली जनता को प्रलोभन देकर गद्दी जीतने की इस रणनीति पर दोनों ही राजनीतिक दल मशगूल है। लेकिन जनता इस बार असल मुद्दे की लड़ाई की ताक में दिखती है।
खेल बिगाड़ सकते हैं निर्दलीय!
अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीट पर निर्दलीय प्रत्याशी बड़े राजनीतिक दलों का राजनीतिक गणित बिगाड़ सकते हैं। इस चुनाव में कांग्रेस-भाजपा के अलावा अन्य मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल एवं निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव मैदान में है। जातीय समीकरण को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस और भाजपा के जिन प्रत्याशियों पर दाव लगाया है। वह अब जातीय समीकरण को साधने की रणनीति पर जुटे हैं। लेकिन निर्दलीय प्रत्याशी उनका गणित बिगाडऩे उस जातीय समीकरण पर सेंधमारी करते दिख रहे हैं। ऐसे में दोनों ही राजनीतिक दलों में इस क्षेत्र के ओबीसी वोट बैंक को निर्णायक माना जा रहा है। ओबीसी वोट के ध्रुवीकरण की रणनीति में कौन सफल होता है, फिलहाल कह पाना मुश्किल है। प्रदेश की राजनीति का असर ओबीसी वर्ग पर होता है या नई दिशा में ओबीसी वोट बैंक अपना मुकाम बनता है। इस पर भी लैलूंगा सीट का चुनाव आने वाले दिनों में बढ़ सकता है। इस पर निर्दलीय क्या निर्णायक स्थिति बना पाते हैं, आने वाले दिनों में पता चलेगा।

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