रायगढ़। उपरोक्त बातें मोतीलाल नेहरू महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से वक्ता के रूप में आये हिन्दी के सहायक प्राध्यापक सौरभ सराफ ने कही। किरोड़ीमल शासकीय कला एवं विज्ञान महाविद्यालय रायगढ़ (छत्तीसगढ़) के स्नातकोत्तर इतिहास विभाग द्वारा ‘इतिहास और साहित्य का अंतर्संबंध’ विषयक अतिथि व्याख्यान का आयोजन किया गया। महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ. अशोक कुमार भारती के मार्गदर्शन एवं विभागाध्यक्ष इतिहास प्रताप चौधरी व अर्जुन झा के कुशल निर्देशन में यह आयोजन सम्पन्न हुआ। सर्वप्रथम पुष्पगुच्छ देकर अतिथि वक्ता का स्वागत किया तत्पश्चात प्रो. अर्जुन झा ने इस आयोजन पर बीज वक्तव्य प्रस्तुत किया उन्होंने कहा कि इतिहास और कला का एक दूसरे से घनिष्ठ जुड़ाव है दोनों विषयों में बहुत अधिक भिन्नता होने के बावजूद गहरे से दोनों एक दूसरे से जुड़े हैं। इसलिए ऐसे महत्वपूर्ण विषय पर यह व्याख्यान आयोजित किया गया है। इस अवसर पर मुख्य वक्ता के रूप में सौरभ सराफ ने अपना उद्बोधन दिया। उन्होंने कहा कि इतिहास और साहित्य के अंतर्संबंध पर बात करना आज के दौर में और अधिक महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि आज इतिहास की अनेक घटनाओं में शोध पश्चात नवीन विचार सामने आ रहे हैं। उन्होंने कहा कि प्रचलित अवधारणा के अनुरूप जहां इतिहास में तर्क, तथ्य व घटनाओं का विशेष स्थान होता है वहीं साहित्य उन घटनाओं के पीछे छिपे भावों और विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम है। उन्होंने कहा कि इतिहास की घटनाएं जहां मौन हो जाती हैं साहित्य मुखर होकर समाज को राह दिखाने का प्रयास करता है और साहित्य यदि घटनात्मक स्तर पर तथ्यों से दूर हो रहा हो तो इतिहास से उसे यथार्थ का पता चलता है। उन्होंने कुछ उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहा कि जैसे भक्ति आंदोलन के उद्भव विकास को समझने के लिए ग्रियर्सन, आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के महत्वपूर्ण विचार सामने आते हैं वहीं इतिहास के सल्तनत और मूलगकालीन पक्षों को पढक़र तत्कालीन घटनाओं की वास्तविक स्थिति का पता चल पाता है। उन्होंने अपने व्याख्यान में भक्ति आंदोलन के साथ ही भारत विभाजन के विभिन्न पक्षों का साहित्य और इतिहास में पृथक पृथक अभिव्यक्ति को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि भारत विभाजन के कारणों, प्रभावों व परिणामों को समग्रता से समझने के लिए आधुनिक भारत के इतिहास के ग्रंथ जितने महत्वपूर्ण हैं उतना ही महत्व तत्कालीन समय से जुड़े उपन्यासों व कहानियों का भी है। साहित्य की विविध विधाओं में इस प्रकार के ऐतिहासिक पक्षों को बहुत सूक्ष्मता से रेखांकित किया गया है। प्रो. सौरभ का सम्पूर्ण उद्बोधन साहित्य और इतिहास के परस्पर संबंधों और एक दूसरे से उनके जुड़ जाने के बाद समग्र अध्ययन पर केंद्रित रहा। इस आयोजन में अंत में विद्यार्थियों व शोधार्थियों के शंका समाधान के लिए प्रश्नोत्तर सत्र भी रखा गया। विद्यार्थियों ने पूछा कि इतिहास को किन-किन साहित्य के ग्रंथों विशेषकर हिंदी की रचनाओं में देखा जा सकता है ? वक्ता द्वारा उसका उत्तर देते हुए बताया गया कि रामधारी सिंह दिनकर की रचना संस्कृति के चार अध्याय, जयशंकर प्रसाद के नाटक चन्द्रगुप्त, स्कन्दगुप्त, अजातशत्रु, जनमेजय का नागयज्ञ इत्यादि तथा आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, रांगेय राघव, वृन्दावन लाल, भगवती चरण वर्मा, यशपाल, भीष्म साहनी इत्यादि के उपन्यासों, कहानियों व अन्य विधाओं में विभिन्न ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्यों को समझा जा सकता है। उन्होंने विद्यार्थियों, शोधकर्ताओं द्वारा पूछे गए विभिन्न प्रश्नों का विस्तार से उत्तर दिया। इस आयोजन में विभागाध्यक्ष हिंदी उत्तरा कुमार सिदार, अतिथि व्याख्याता प्रशांत विश्वकर्मा, भरत लाल मेहर, डॉ. सरिता भगत एवं अधिकाधिक संख्या में विद्यार्थियों शोधार्थियों की सहभागिता रही।