सारंगढ़। नगर के अग्रसेन भवन में अभामा महिला सम्मेलन के बैनर तले रानी सती दादी जी की महामंगल पाठ संपन्न हुआ। मंगल पाठ मशहुर गायिका पुनम शर्मा कोरस गायिका आशा अग्रवाल, कृष्ण कुमार देवांगन की सुमधुर आवाज श्रद्धालु भक्तों को झूमने के लिए विवश कर दिए। मुख्य यजमान घनश्याम मीना बंसल के द्वारा वैदिक रीति से पूजा अर्चना की गई, पूजा कराने वाले गोपाल जी मंदिर के महंत बंशीधर दास मिश्रा ने विधि विधान के साथ सती रानी दादी का पूजा करवायें। सती रानी दादी की इतिहास परम आराध्या श्री राणी सती जी के प्रताप, उनके वैभव व अपने भक्तों पर नि:स्वार्थ कृपा बरसाने वाली माँ नारायणी को कौन नहीं जानता ? भारत में ही नहीं, अपितु पूरी दुनिया में इनके करोड़ो भक्त व उपासक हैं। गायिका पूनम शर्मा के द्वारा गीतों के रूप में सती रानी दादी के इतिहास का पाठ किया। पौराणिक इतिहास से ज्ञात होता है कि महाभारत के युद्ध में चक्रव्यूह में अभिमन्यु वीरगति को प्राप्त हुए थे। उस समय उनकी पत्नी उत्तरा जी को भगवान श्रीकृष्ण ने वरदान दिया था कि कलियुग में तू श्री राणी सती के नाम से विख्यात होगी, सारी दुनिया में तू पूजित होगी। उसी वरदान के स्वरूप श्री राणी सती जी आज से लगभग 727 वर्ष पूर्व मंगलवार, मार्गशीर्ष बदी नवमीं, संवत् 1352, ईस्वी 06 दिसंबर 1295 को सती हुई थी।
जन्म माँ राणी सती का जन्म कार्तिक शुक्ल नवमीं, संवत् 1338 मंगलवार 28 अक्टूबर 1281, समय रात्रि 12:10 बजे डोकवा ग्राम में हुआ था। जिसका जिवंत प्रस्तुति मारवाड़ी महिला मंडल द्वारा की गई। ब्यूटी सेंटर के मालिक प्रदीप गावडिय़ा के नातीन को नारायणी बाई बनाया गया था। नारायणी बांई अपने सहेलियों के साथ स्कूल गई इस दौरान अखिल भारतीय मारवाड़ी महिला सम्मेलन की महिलाओं के द्वारा झूम झूम कर नृत्य किया गया और विविध प्रकार के समान बांटे गए। इनके पिता का नाम सेठ गुरसामल जी एवं माता का नाम श्रीमती गंगा देवी था। बचपन में दादी जी का नाम नारायणी बाई रखा गया था। ये बचपन में धार्मिक व सतियों वाले खेल खेलती थी। बड़ी होने पर सेठ जी ने उन्हें धार्मिक शिक्षा के साथ – साथ, शस्त्र शिक्षा व घुड़सवारी की शिक्षा भी दिलाई थी। बचपन से ही इनमें दैविक शक्तियाँ नजर आती थी, जिससे गाँव के लोग आश्चर्य चकित थे।
विवाह- नारायणी बाई का विवाह हिसार राज्य के सेठ श्री जालीराम के पुत्र तनधन दास जी के साथ मंगसिर शुक्ल नवमीं, सं. 1351, 14 दिसंबर 1294, मंगलवार को बहुत ही धूमधाम से हुआ था।तनधन जी का इतिहास तनधनदास जी का जन्म हिसार के सेठ जालीराम के घर पर हुआ था। इनकी माता का नाम शारदा देवी था। छोटे भाई का नाम कमलाराम व बहिन का नाम स्याना था। जालीराम जी हिसार के दिवान थे। वहाँ के नवाब के पुत्र और तनधन दास जी में मित्रता थी। परंतु समय और संस्कार की बात है, तनधन दास जी की घोडी शहजादे को भा गई। घोडी पाने की हठ में दोनों में दुश्मनी ठन गई। घोडी छिनने के प्रयत्न में शहजादा मारा गया। इस हादसे से घबराकर दीवान जी रातों-रात परिवार सहित हिसार से झुंझन की ओर चल दिये। हिसार सेना की ताकत, झुंझुनू सेना से टक्कर लेने की थी, दोनों शाहों में शत्रुता होने के कारण ये लोग झुंझुनूं में बस गये। मुकलावा-मुकलावे के लिए महम पहुंचे। मंगसिर कृष्ण नवमी मंगलवार को प्रात: शुभ मेला में नारायणी बाई विदा हुई। परंतु होनी को तो कुछ और ही मंजूर था। इधर नवाब घात लगाकर बैठा था। मुकलावे की बात सुनकर सारी पहाड़ी को घेर लिया। देवसर की पहाड़ी के पास पहुँचते ही सैनिकों ने हमला कर दिया। तनधनदास जी ने वीरता से डटकर हिसारी फौज का सामना किया। विधाता का लेख देखिये, पीछे से एक सैनिक ने धोखे से वार कर दिया, जिसके कारण तनधनदास जी वीरगति को प्राप्त हुए।
नई-नवेली दुल्हन ने जब डोली से यह सब देखा, वह वीरांगना नारायणी, चण्डी का रूप धारण कर सारे दुश्मनों का सफाया कर दिया। झड़चन्द को भी एक ही वार में खत्म कर दिया। लाशों से जमीन पट गई, सारी भूमि रक्तरंजित हो गई। बची हुई फौज भाग खड़ी हुई। इसे देख राणाजी की तंद्रा जगी, वे आकर माँ नारायणी से शांत होने के लिए प्रार्थना करने लगे, तब माता ने शांत होकर शस्त्रों का त्याग किया। सती- फिर राणा को बुलाकर उनसे कहा मैं सती होऊंगी, तुम जल्दी से चिता तैयार करने के लिये लकड़ी लाओ।’ चिता बनने में देर हुई और सूर्य छिपने लगा तो उन्होंने सत् के बल से सूर्य को ढकने से रोक दिया और अपने पति का शव लेकर चिता पर बैठ गयी। चूड़े से अग्नि प्रकट हुई और सती पतिलोक चली गई। चिता धू-धू जलने लगी। देवताओं ने गगन से सुमन – वृष्टि की। झुंझुनूँ धाम तत्पश्चात् चिता से देवीरूप में सती प्रगट हुई और मधुरवाणी में राणा जी से बोली मेरी चिता की भस्म को घोड़ी पर रखकर ले जाना, जहाँ ये घोड़ी रूक जायेगी वहीं मेरा स्थान होगा। मैं उसी जगह से जन-जन का कल्याण करूँगी। ऐसा सुनकर राणा बहुत रूदन करने लगा। तब माँ ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि मेरे नाम से पहले तुम्हारा नाम आयेगा। राणी सती नाम इसी कारण से प्रसिद्ध हुआ। घोड़ी झुंझुनूं ग्राम में आकर रूक गई। भस्मी को वहीं पघराकर राणा ने घर में जाकर सारा वृत्तांत सुनाया। ये सब सुनकर माता-पिता, भाई- बहिन सभी शोकाकुल हो गये। आज्ञानुसार भस्मी की जगह पर एक सुंदर मंदिर का निर्माण कराया। आज वही मंदिर, हमारा एक बहुत बड़ा पुण्य स्थल है, तथा वहीं बैठी माँ राणीसती दादी जी अपने बच्चों पर अपनी असीम अनुकम्पा बरसा रही है। अपनी दया दृष्टि से सभी को हरषा रही है। देश में एवं पूरे विश्व में दादी जी के जगह-जगह मंदिर बन गये हैं। घर-घर में दादी जी का चमत्कार हो रहा है एवं भक्तों का कल्याण हो रहा है।
श्री राणी सती दादी जी महामंगल पाठ धुमधाम से संपन्न
अभामा महिला सम्मेलन की अद्वितीय प्रस्तुति
