इतिहास के पन्नों पर साफ अंकित है कि पुरातन सभ्यता में जहाँ भी मानव सभ्यता का विकास हुआ है वह जीवन दायिनी नदियों के किनारे पर ही हुआ है।एक ऐसी ही सभ्यता है हमारा रायगढ़ जिसे महतरी केलो नें पाला है,अपने जल से अपनी उपज से अपनी मिट्टी से और अपनी ऊर्जित वनस्पतियों से।रायगढ़ भी खूब फूला फला और एक संस्कृतिक नगरी होने का गौरव प्राप्त किया।समय चक्र की गति के साथ चलता रायगढ़ आज भी केलो के किनारे ही है,फल फुल भी रहा है पर माँ का दर्जा जिस केलो को दिया था वो दर्जा ज़रूर धूमिल हो चुका है और स्वच्छ जल की धारा जिस केलो की पहचान थी वो अब एक गन्दगी भरे नाले से अधिक और कुछ नहीं रह गई।क्या आगे आने वाली पीढ़ी इसे न्याय कहेगी,क्या एक माँ के साथ ये बर्ताव सहीं है?अगर हाँ तो, धिक्कार है रायगढ़ को अपनी जन्मभूमि और कर्मभूमि बताने वालों पर।आज केलो शोषण की इन्तहा झेल रही है,वर्ष भर में एक दिन आरती की जाती है और बाकी के तीन सौ चौसठ दिन उसमें मनचाही गन्दगी उडेल दी जाती है।आखिर ये बर्ताव किसी शिक्षित समाज का कैसे हो सकता है?और यदि ये बर्ताव किया जा रहा है तो ऐसे बड़े लोगों को शिक्षित और सभ्य कैसे मान लिया जाये?अपना अस्तित्व बचाने के चक्कर में एक सभ्य समाज नें एक जीवनदायिनी नदी का ही अस्तित्व मिटा दिया।आज मेरी कलम भले ही छोटी सहीं पर एक पुरज़ोर कोशिश ज़रूर करेगी कि माँ को माँ का दर्जा मिले और पूरे सम्मान के साथ मिले।
यदि आज हम किसी भी बड़ी समस्या पर सामाजिक मंच पर बात करते हैं और जनमानस के पटल पर वो मुद्दे उठते हैं तो सब से पहली ऊँगली उठती है सरकार पर,जनता का एक बड़ा हिस्सा सरकार पर अपनी गन्दगी साफ करने हेतु पूर्णतया आश्रित है,और यदि सरकार की तरफ से कोई त्रुटि हो तो उसे दोष देना अपना कर्तव्य समझती है।कारण भी है उनके पास वे टैक्स देते हैं,और बदले में उमीद रखते हैं कि सरकार स्वच्छ भारत मिशन पर जादूगर और बाज़ीगर की तरह काम करे और सरकार है कि उसे टैक्स से कहाँ पूर्ति होती है!अफसर तो और चाहते हैं तभी तो नदी को नाला बनाते उद्योग शान से अपना कचरा केलो को दान करते नहीं थकते वरना कानून तो इतने सख्त हैं कि यदि ईमानदारी से पालन हो तो तत्काल प्रभाव से कई उद्योग बंद हो जाएँ।बड़े बड़े उद्योगो की डंपिंग फ्लाई ऐश केलो को निगलने की कगार पर है।उसमें भरे हुए रासायन नदी के भीतर जल जीवन को नष्ट कर देने की क्षमता रखते हैं इसके बावजूद भी क्यों सरकार को सुध नहीं? डिपार्टमेंट जिसे जल संरक्षण हेतु स्थापित किया गया था आखिर वे क्या संरक्षित करते आये हैं इतने वर्षों से?बड़ा सवाल है और जवाब नदारद।
हमारे देश की एक विडम्बना रही है इसमें जिस जिस को माँ कहा गया उसका खूब शोषण किया है,चाहे स्त्री हो,ज़मीन हो,वनस्पति हो या नदियाँ सभी की स्थिति गंभीर है।आज नवरात्र के पावन अवसर पर प्रत्येक व्यक्ति यदि केवल इतना ही प्रण कर ले कि वह अपनी गन्दगी माँ पर नहीं उडेलेगा तो इस विकट समस्या का आधा समाधान हो जायेगा।प्लास्टिक का कम उपयोग,रासायनों का कम उपयोग और अपनी नदियों को स्वच्छ रखने की पहल करने हेतु यदि ठान लिया जाये तो बदलाव अवश्य आएगा।और यदि प्रत्येक व्यक्ति में सुधार होगा तो जल संसाधन हेतु सरकार के कार्यो में भी कड़ाई आएगी और केलो का भविष्य सुधरेगा।आज मेरी कलम केलो नदी से छीने हुए माँ के दजऱ्े को वापस लाने हेतु खड़ी है आशा है कलम की ये कोशिश कागज़ों से निकल कर प्रत्येक हृदय तक पहुंचेगी और माँ केलो की आरती प्रतिपल होगी।
कविता शर्मा, घरघोड़ा
एक मिथ्या माँ; केलो!
एक मिथ्या माँ; केलो!
