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NavinKadam > सारंगढ़ > सुदामा चरित्र मित्रता का आदर्श उदाहरण – बंशी
सारंगढ़

सुदामा चरित्र मित्रता का आदर्श उदाहरण – बंशी

lochan Gupta
Last updated: October 30, 2025 11:33 pm
By lochan Gupta October 30, 2025
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4 Min Read

सारंगढ़। श्री गोपाल जी मंदिर छोटे मठ में श्रीमद् भागवत महापुराण कथा ज्ञान यज्ञ में भागवतचार्य महंत बंशीधर दास महंत द्वारा मित्रता के लिए आदर्श बताते हुए महंत बंशीधर ने कहा कि – सुदामा चरित्र श्रीमद्भागवत महापुराण में वर्णित एक अत्यंत मार्मिक कथा है, जो दास भक्ति (सेवक भाव) और मित्र भक्ति (मित्र भाव) दोनों का सुंदर समन्वय प्रस्तुत करती है। गरीब ब्राह्मण सुदामा व भगवान श्रीकृष्ण गुरुकुल के साथी थे। सुदामा ने भक्ति में कभी भी अपने स्वार्थ या संपत्ति की इच्छा नहीं रखी। उनकी भक्ति निष्काम और निर्मल थी। जब सुदामा अपनी गरीबी से व्यथित हो कर द्वारका पहुँचे, तब भी उन्होंने अपने मित्र कृष्ण से कुछ माँगने का विचार नहीं किया एक मुठ्ठी चिवड़ा ( चावल ) मैं ही संतुष्ट होने वाले द्वारकाधीश श्रीकृष्ण ने अपने मित्र धर्म और भक्त वत्सलता को निभाते हुए सुदामा के घर धन – धान्य से भर दिया। भक्ति में भाव मुख्य है, भेंट नहीं। भगवान अपने भक्त के भाव से ही प्रसन्न होते हैं। सच्ची मित्रता वह है जिसमें एक-दूसरे का कल्याण बिना स्वार्थ के हो। इस प्रकार सुदामा चरित्र भक्ति, विनम्रता और सच्चे मित्र प्रेम का सर्वोच्च उदाहरण है।
भागवताचार्य बंशीधर दास मिश्रा के द्वारा सुदामा चरित्र में एक विशेष भजन का गायन किया गया भक्तों के लिए भगवान तुम दास कहाते हो जिसमें श्रद्धालु भक्त जमकर नाचते हुए नजर आए। कथा विन्यास को आगे बढ़ते हुए महंत मिश्रा ने राजा परीक्षित, जो अर्जुन के पौत्र व अभिमन्यु के पुत्र थे, जब श्राप वश सात दिन में मृत्यु निश्चित हो गई, तब उन्होंने संसार के सारे मोह त्यागकर गंगा तट पर श्रीशुकदेव जी से श्रीमद्भागवत कथा का श्रवण किया। सात दिनों तक भागवत कथा सुनकर राजा परीक्षित ने ज्ञान, भक्ति और वैराग्य प्राप्त किया। कथा के अंत में तक्षक सर्प के दंश से उन्होंने शरीर त्याग किया व भगवान श्रीहरि के परम धाम को प्राप्त हुए। यह प्रसंग दर्शाता है कि भागवत श्रवण से जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति संभव है। सच्चे भाव से कथा सुनने वाला भी मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। आचार्य महंत ने कथा को आगे बढ़ते हुए झूठ हीं देना झूठ हीं भोजन झूठ जबेना कहकर कलयुग के प्रभाव को बताते हुए कहे कि – कलियुग को चारों युगों में सबसे कठिन युग कहा गया है। इसमें धर्म के चार पैरों में से केवल एक – सत्य शेष रहता है। कलियुग के लक्षण – लोभ, क्रोध, ईर्ष्या, पाखंड की वृद्धि। धर्म के नाम पर दिखावा। माता – पिता, गुरु और धर्म के प्रति सम्मान में कमी। फिर भी श्रीमद्भागवत कहता है कि – कलौ दोषनिधे राजन् अस्ति ह्येकं महान् गुण:। कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्त सङ्ग: परं व्रजेत्। कलि युग दोषों का सागर है, पर एक महान गुण है कि – कलि युग केवल नाम आधार सुन ही गांवहीं हों ही भवपारा। केवल श्रीकृष्ण नाम के कीर्तन से ही मनुष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।

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