रायगढ़। राष्ट्र निर्माण के लिए जनमानस को नशे के परित्याग का संकल्प लेना है यही मेरे लिए सच्ची गुरु दक्षिणा है। उक्त बाते पूज्य बाबा प्रियदर्शी राम जी ने गुरु पूर्णिमा पर आशीर्वचन के दौरान हजारों की संख्या में मौजूद महिलाओं पुरुषों युवाओं से आह्वान करते हुए कही। पूज्य पाद बाबा प्रियदर्शी राम ने कहा आश्रम में आए लोगों के जीवन में अनुशासन देख यह विश्वास होने लगा है कि सभी संत महात्माओं के दिए उपदेशों का जीवन में पालन मार्ट रहे है। मनुष्य के अंदर मौजूद शक्तियों के संबंध में उन्होंने कहा परमात्मा ने हर मनुष्य को विशेष शक्ति देकर भेजा है। मनुष्य चाहे जो कर सकता है। अमृत पान के सेवन मात्र से ही शरीर अमर होता तो पूर्व में ही बहुत से संत महात्मा अपने शरीर को नष्ट होने से बचा लेते। समय को परिवर्तनशील बताते हुए उन्होंने कहा मनुष्य के अंदर मौजूद आत्मा की शक्ति कभी नष्ट नहीं होती। आत्म शक्ति को ध्यान धारणा के जरिए समझना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है।जो मनुष्य इस उद्देश्य को सही मायने में समझता है वही अमरता को प्राप्त करता है। संत की वाणियों संत के ज्ञान को ग्रहण करने के साथ साथ उसे व्यवहारिक जीवन में उतारे जाने की आवश्यकता जताते हुए उन्होंने कहा संतो का ज्ञान ग्रहण करने के लिए मनुष्य का गतिशील होना आवश्यक है। जीवन में सुख शांति की चाह के लिए काम करने वाले मनुष्यों के दुखी और क्लेश का कारण बताते हुए कहा संत महात्माओं के बताएं गए मार्ग के अनुशरण में त्रुटि ही दुखो की वजह है। संत चिकित्सक की भूमिका को एक बताते हुए पूज्य बाबा ने कहा जैसे चिकित्सक रोगों के लिए रोगी को दवा बताने के साथ साथ सेवन की विधि एवं परहेज भी बताता है। दवा के सेवन के साथ रोगी परहेज नहीं करता तो रोग का समूल नाश नहीं होता। एक चिकित्सक की भांति संत भी दुखी मनुष्य को दुख दूर करने का उपाय बताता है लेकिन ठीक से अनुसरण नहीं करने की वजह से मनुष्य के जीवन में दुख व्याप्त होते है। संत के बताए मार्ग का शिष्यों के द्वारा अनुशरण नहीं करना भी संत के लिए दुख का विषय होता है।संत के बताएं मार्ग के अनुसरण से मनुष्य जीवन में नई ऊंचाई हासिल कर सकते है। परमात्मा ने हर मनुष्य को धर्म-अधर्म,उचित- अनुचित,भला – बुरा,नैतिक – अनैतिक का भेद समझने के लिए विवेक दिया है विवेक के जरिए बुध्दि का इस्तेमाल कर मनुष्य कर्म के दौरान भले बुरे के भेद को आसानी से समझ सकता है। उसके लिए सात्विक बुद्धि को आवश्यक बताते हुए पीठाधीश्वर ने कहा धर्म अधर्म का भेद नहीं समझने वाले मनुष्यों की बुद्धि तामसिक होती है। तामसिक बुद्धि के लिए कुसंगति को सबसे बड़ी वजह बताते हुए उन्होंने कहा हर मनुष्य को अच्छी संगत के लिए चिंतन करना चाहिए।अच्छी संगति से बुद्धि के सात्विक रहने का मार्ग प्रशस्त होता है। जीवन सफर में जैसे ही पथ पर भटकाव हो सात्विक बुद्धि मनुष्य को भटकाव का बोध करा सकती है।पंचशील का पालन मनुष्य के जीवन का वो पथ है जिसमें हर मनुष्य को निष्ठा ईमानदारी से चलना चाहिए। पंचशील का पालन करते हुए मनुष्य जीवन जीता है निश्चित रूप से सफलता उसके कदमों में होगी।काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या और निंदा को मनुष्य जीवन का अपथ्य बताते हुए पूज्य पाद प्रियदर्शी ने कहा कि यह प्रवृत्तियां पहले असुरों के पास मौजूद थी लेकिन अब यह प्रवृत्तियां मनुष्यों के अंदर देखने मिल रही है यदि हम ऐसी आसुरी प्रवृत्तियों को जीवन में अपनाते हैं तो हमें भी दुखों का सामना करना पड़ेगा गुरु द्वारा दी गई मंत्र रूपी औषधी का मनुष्यों को निरंतर सेवन करना चाहिए तभी अपने जीवन को सार्थक बना सकता है। मन को चंचल बताते हुए बाबा प्रियदर्शी राम ने कहा मनुष्य का मन अनेकों प्रकार की वासनाओं कामनाओं इच्छाओं से सदा घिरा होता है गीता में अर्जुन द्वारा भगवान कृष्ण से आत्मा की शक्ति के संबंध में पूछे गए प्रश्न का जिक्र करते हुए बाबा राम जी ने कहा अपार शक्ति होने का बावजूद मन को अनुकूल बनाने हेतु भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा निरंतर ध्यान अभ्यास और वैराग्य ही मन को जीवन के सही मार्ग में चलने के अनुकूल बना सकते हैं। चंचल मन को मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु बताते हुए उन्होंने कहा यह शत्रु बाहर नहीं बल्कि हर मनुष्य के अंदर मौजूद है। जिस तरह से हम निरंतर शारीरिक अभ्यास नहीं करते इससे हमारा शरीर कमजोर हो जाता है और बाहरी बीमारियां आसानी से कमजोर शरीर को पकड़ लेती है पुन: शारीरिक अभ्यास के जरिए शरीर को मजबूत बनाते है तो बीमारी स्वत: दूर हो जाती है खान पान के नियंत्रण और शारीरिक अभ्यास के जरिए जैसे हम बीमारियों को दूर रखते है वैसे ही गुरु संत द्वारा बताए गए ध्यान धारणा का निरन्तर अभ्यास कर चंचल मन को अपथ्य के जाने से आसानी से रोका जा सकता है। चंचल मन को नियंत्रित कर मनचाहा लक्ष्य हासिल करना कोई चमत्कारिक क्रिया नहीं बल्कि जीवन जीने का सहज सूत्र है। केवल एक समय विशेष में पूजा पाठ धूप बत्ती करना अभ्यास की असली प्रक्रिया नहीं बल्कि उठने से लेकर सोने तक इस व्यवहारिक जीवन में अभ्यास की प्रकिया निरंतर जारी रहती है। जीवन के हर पल में बुद्धि की सात्विकता को बनाए रखना ही असल अभ्यास है सात्विक बुद्धि मनुष्य को जीवन के हर पल में अच्छे और बुरे कर्म का बोध कराती है। ध्यान, धारणा, प्राणायाम को जीवन के लिए सबसे बड़ी प्राथमिकता बताते हुए पूज्य बाबा जी ने कहा जीवन को स्वस्थ रखने के लिए नियमित प्राणायाम आवश्यक है क्योंकि जीवन में लक्ष्य को हासिल करने के लिए शरीर का स्वस्थ होना आवश्यक है और हर मनुष्य को इसका पालन करना चाहिए।नियमति प्राणायाम करने मात्र से मनुष्य मन को आसानी से साध सकता है। प्राणायाम के अभ्यास से मनुष्य के अंदर गलत सही का भेद समझने की शक्ति जागृत हो जाएगी। शरीर की पवित्रता के साथ साथ मन की पवित्रता को भी आवश्यक बताते हुए कहा जैसे विष से भरे हुए सोने के घड़े से बेहतर दूध से भरा मिट्टी का घड़ा होता है। लोग घड़े की सुंदरता की बजाय उसमें मौजूद तत्व की वजह से सोने के घड़े की बजाय मिट्टी के घड़े को स्वीकार करेंगे जबकि सोने का घड़ा मिट्टी के घड़े की तुलना में अनमोल है।गुण दोष को समझे बिना किसी से भी संगति नहीं करने की सलाह भी देते हुए उन्होंने कहा मनुष्य की शील शालीनता को जाने समझे बिना ही उससे संपर्क नहीं बढ़ाना चाहिए। ईश्वर पर आस्था रखने वाले सदाचारी,सत्य के मार्ग में चलने वालों को ही मित्र बनाने की सलाह देते हुए उन्होंने कहा अच्छी संगत मनुष्य के जीवन को प्रभावित करती है वही बुरी संगत मनुष्य को पतन के मार्ग की ओर ले जाती है।अच्छे साहित्य को अच्छे मित्र की संज्ञा देते हुए पूज्य बाबा ने कहा सद साहित्यों के अध्ययन से जीवन में संस्कार का ज्ञान होता है बुरी संगत से दूरी बनाए रखना ही जीवन असल वैराग्य है।बुरे लोग जीवन के लिए साधक नहीं बल्कि बाधक बनेंगे। जीवन की सत्यता का बोध कराते हुए उन्होंने कहा जिस दृष्टि से हम सृष्टि को देख रहे वह मिथ्या है क्योंकि जो शरीर मनुष्य आज देख रहा है वह बीते हुए कल में नहीं था और आज जो शरीर है वो आने वाले कल में नहीं रहेगा जो जन्म के पहले भी था और मृत्यु के बाद भी रहेगा वहीं परम सत्य है।इस सत्य को समझे बिना मनुष्य दुखों के झंझावात से बाहर नहीं जा सकता। आत्मा की शक्ति से मनुष्य अनभिज्ञ है।
गुरु के लिए शिष्यों में भेद नहीं होने का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा जैसे पारस के पत्थर के लिए कसाई के घर का लोहे या आम आदमी के घर का लोहे में कोई भेद नहीं होता जिसके घर का लोहा पारस पत्थर के संपर्क में आयेगा वह सभी को समान रूप से सोना बना देगा। संतो की भूमिका भी शिष्यों के लिए एक समान होती है। संतो का सानिध्य मनुष्यों के जीवन में विनम्रता शालीनता का भाव पैदा करता है। विनम्र शालीन होते ही मनुष्य के जीवन से बुराइयां दूर होने लगती है। बुराइयां दूर होते ही जीवन में संतोष का भाव पैदा होने लगता है। उन्होंने इस सच्चाई से अवगत कराया कि थोड़े समय की ईश्वर भक्ति से संतुष्ट होने वाला व्यक्ति दस से बारह घंटे तक धन अर्जित करने के बाद भी संतुष्ट नहीं हो पाता संतो का सानिध्य मनुष्यों को आसानी से संतुष्ट होने का मार्ग बताता है। संसार को माया के आवरण से ढका बताते हुए पीठाधीश्वर ने कहा संसार को क्रियाशील करने के पीछे एक अदृश्य शक्ति है। समय के बंटवारे के संबंध में उन्होंने जनमानस को सलाह देते हुए कहा जीवन जीने के दौरान समय का एक भाग स्वयं के आत्म उत्थान आध्यात्मिक विकास के लिए देना चाहिए समय के दूसरे भाग को स्वयं पर आश्रित परिवार जनों को देना चाहिए वही समय के तीसरे भाग को समाज एवं राष्ट्र की सेवा के लिए समर्पित करना चाहिए। समय के प्रबंधन के लिए भी निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता उन्होंने जताई। ईश्वर ने सभी को सामर्थ्यवान बना कर भेजा है अपने अंदर मौजूद शक्ति का सदुपयोग दुरुपयोग मनुष्य के विवेक पर निर्भर है कई बार मनुष्य अज्ञानता की वजह से शक्ति का सदुपयोग करने से वंचित रह जाता है शक्ति को समझने के लिए निरंतर एक से दो घंटे का अभ्यास आवश्यक है। जीवन का उद्धार,कल्याण करने के लिए सकारात्मक गतिविधियों में लगे रहने का परामर्श भी उन्होंने दिया। अन्यथा अनमोल मानव जीवन नाना प्रकार के दुखो के भंवर में फंस कर ही रह जाता है। मनुष्य संसार में सब कुछ अपना समझने की भूल कर बैठता है जबकि मनुष्य का शरीर मनुष्य का नहीं है क्योंकि समय के साथ जन्म बचपन जवानी बुढ़ापा मृत्यु आती है जिस शरीर को मनुष्य अपना मान लेता है उसे परिवर्तित होने से नहीं रोक सकता। संसार के भौतिक संसाधनों को दुख का कारण बताते हुए कहा साधनों पर मनुष्य की निर्भरता बढ़ती जा रही है। साधनों का अभाव मनुष्य के दुख का कारण बनता जा रहा है। मन मंदिर में स्थापित आत्मा को समझने की आवश्यकता पर जोर देते हुए उन्होंने कहा ईश्वर मंदिरों में नहीं बल्कि मन मंदिर में आत्मा के रूप में स्थापित है और यही आत्मा जन्म के पहले भी थी और मृत्यु के बाद भी रहेगी। मृत्यु के साथ कुछ भी साथ नहीं जाता इस सच्चाई को विस्तार से समझाते हुए कहा जीवन भर अर्जित की गई और आंखों दिखने वाले भौतिक संसाधन मृत्यु के साथ पीछे छूट जाते है लेकिन इस संपति को अर्जित करने के लिए पाप पुण्य का लेखा जोखा मृत्यु के बाद मनुष्य के साथ जाता है इसलिए मनुष्य का यह कर्त्तव्य है कि जीवन जीने के दौरान हर कर्म के पीछे सुचिता पवित्रता का भाव रखे।
प्रियदर्शी राम जी ने बताया ईश्वर भक्ति के बाद भी दुखी क्यों रहता है मनुष्य
आशीर्वचन के दौरान पूज्य बाबा प्रियदर्शी राम ने ईश्वर की भक्ति के बाद भी मनुष्यों को दुखी रहने का कारण बताते हुए कहा ईश्वर की भक्ति से हमारा वर्तमान एवं भविष्य तो सुधरता है लेकिन अतीत में किए गए कर्मो का फल भुगतना पड़ता है हमारे बीते हुए पापों का लेखा जोखा पूरा नहीं होता तब तक परेशानियां हमारे कर्म फल के रूप में सामने आती रहेगी। इसका मतलब यह नहीं है कि ईश्वर भक्ति का असर नहीं हो रहा ईश्वर भक्ति से दुखो की तीव्रता और अवधि कम हो जाती है प्रियदर्शी राम जी कहते है जो विपत्ति आई है वो और बढ़ी हो सकती थी लेकिन ईश्वर भक्ति ने उसे सहने के योग्य बना दिया इसलिए श्रद्धा पूर्वक ईश्वर भक्ति में रमे रहिए जीवन अवश्य रूपांतरित होगा।
गुरु के बताए गए मार्ग का अनुशरण ईश्वर प्राप्ति का जरिया : पूज्य बाबा प्रियदर्शी राम
गुरु प्रियदर्शी राम का जनमानस से आह्वान : राष्ट्र निर्माण के लिए नशे के परित्याग का लें संकल्प, गुरु पूर्णिमा पर पूज्य पाद राम जी का आशीर्वचन
