शुक्ला छायावाद के प्रवर्तक जय शंकर प्रसाद के शब्दों में कि प्रहर दिवस कितनी बिते, इसको कौन बता सकता। इनके सूचक उपकरणों का चिन्ह भला कोई पा सकता। यह भी सच है कि हर सभ्यता वक्त की रेत पर अपने निशान छोड़ जाती है, ऐसे ही शैलचित्रों की अनोखी दुर्लभ श्रृंखला रायगढ़ की पहाडिय़ों में बिखरी हुई है, जो सदियां बीतने पर भी धूमिल नहीं हुई है और प्रागैतिहासिक काल से मानव विकास क्रम की कहानियां कह रही हैं। रायगढ़ जिले में हजारों वर्ष पुराने पाषाणकालीन समृद्ध शैलचित्रों का खजाना है, जो न केवल प्रदेश, देश बल्कि पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। ऐसी दुर्लभ पुरासंपदा हमारी प्राचीन सभ्यता के जीवंत अमूल्य अवशेष है। जिले में आदिम मानवों द्वारा सिंघनपुर, करमागढ़, कबरापहाड़, ओंगना, नवागढ़ पहाड़ी, बसनाझर, भैंसगढ़ी, खैरपुर, बेनिपाट, पंचभैया पहाड़, राबकोब गुफा, सारंगढ़ के सिरौली डोंगरी जैसे अनेक स्थानों में शैलाश्रय में शैलचित्र उकेरे गए है, जिनमें पशु-पक्षी, आखेट के दृश्य, परम्परा, जीवनशैली, पर्व एवं त्यौहार का चित्रांकन दीवारों पर किया गया है।
ऐसे रॉक पेंटिंग विश्व के अन्य देशों फ्रांस, स्पेन, आस्ट्रेलिया एवं मेक्सिको में भी पाये गए हैं। प्रागैतिहासिक काल में आदिम मानव इन सघन एवं दुर्गम पहाडिय़ों में गुफाओं एवं कंदराओं में निवास करते थे और यहां सभ्यता का विकास होता गया। आदिम कुशल चित्रकारों द्वारा बनाये शैलचित्रों में उनकी जीवन शैली व परिवेश की अनुगूंज सुनाई देती है, जिसकी भावनात्मक अभिव्यक्ति इन रेखाचित्रों के रूप में उभरकर सामने आती है। आदिमानव रंगों के प्रयोग से अनभिज्ञ नहीं थे। यह शैलचित्र हमारे पुरखों द्वारा दिया गया बहुमूल्य उपहार है। विख्यात पुरातत्वविद स्व.पंडित लोचन प्रसाद पाण्डेय ने इसकी तुलना अमेरिका के गुफा चित्रों से की थी। रायपुर के उत्तर पूर्व में करीब 260 किमी दूर जिला रायगढ़ नगर के पूर्व में राष्ट्रीय राजमार्ग से 13 किमी दूर समीपवर्ती राज्य उड़ीसा की सीमा से मात्र 8 किमी पहले ग्राम पंचायत लोंईग के पश्चिम में 2 किलोमीटर पर आखिरी ग्राम भोजपल्ली है। छग और उड़ीसा राज्य के सीमा से लगा होने के कारण इस क्षेत्र में छत्तीसगढ़ी और उडिय़ा दोनों भाषाओं का मिला – जुला प्रभाव है और लोगों के संवाद का माध्यम उक्त दोनों भाषाओं की सहअस्तित्व वाली लरिया बोली है। कबरा पहाड़ उत्तर – पश्चिम से दक्षिण – पूर्व में धनुषाकार में फैला हुआ है। इसका उत्तर पश्चिम छोर रायगढ़ से ही प्रारंभ होता है, जहां पहाड़ मंदिर नगर का प्रमुख दर्शनीय स्थल है वहीं दक्षिणी पूर्वी हिस्सा प्रसिद्ध हीराकुंड बांध के मुहाने पर बसे घुनघुटापाली में समाप्त होता है। जहां कदमघाट में घंटेश्वरी देवी का मंदिर एक महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थल है। कबरा पहाड़ देखने से ऐसे लगता है मानों हम अपने 5000 वर्ष पूर्व पुरखों की उक्त अद्वितीय कलाकारी को सामने देख रहे हैं। कबरा छत्तीसगढ़ी शब्द है, जिसका अर्थ होता है धब्बे दार। यह मंझोले और छोटे ऊंचाई के सघन वृक्षों और झाडिय़ां से ढाका बलुआ पत्थरों का मिश्रित पहाड़ है। जहां वनस्पतियों के हरे-भरे कैनवास में जगह-जगह उघड़े बलुआ चट्टानों की वजह से पूरा पहाड़ दूर से धब्बेदार दिखाई देता है।पहाड़ का यह नाम इसी वजह से है लेकिन इसका मूल नाम स्थानीय लोग गजमार पहाड़ बताते हैं।
छत्तीसगढ़ी, उडिय़ा संस्कृति से प्रभावित इन शैलचित्रों में घर आंगन एवं दीवारों में पर्व के अवसर पर सजाने खूब सूरत चित्र बनाये गये है। वैसे ही कमल के फूल, गेहू एवं धान की बालियां, तरह-तरह के अनोखी कलात्मक आकृति बनी हुई है। शासन के पुरातत्व विभाग द्वारा इन शैलचित्रों को संरक्षित किया जा रहा है। ग्रामीण यहां त्यौहार के अवसर पर ग्राम देवता के रूप में पूर्वजों की पूजा करने आते है। रायगढ़ से 15 किमी दूर लोईंग से कुछ दूर पर कबरा पहाड़ में पाषाण युग के विशिष्ट शैलचित्र है। जहां गैरिक रंग में छिपकली, हिरण, जंगली भैसा, बारह सिंघा, मेंढक, कछुआ, चक्र, जंगली भैसा मानव आकृति एवं विभिन्न प्रकार की ज्यामितियां आकृतियां है। यहां बने चक्र की खासियत यह है कि – इसमें 36 लकीर बनी हुई है।
पुरातत्वविदों के अनुसार कबरा पहाडिय़ों के शैलचित्र लगभग 5000 वर्ष पुराने हैं। ग्रामवासी इन शैलचित्रों की पूजा करते है। पुरातत्वविदों के अनुसार ये शैलचित्रों 5 हजार ईसा पूर्व के है। ये शैल चित्र प्रस्तर युग तथा नवीन प्रस्तर युग के है। जिनमें आखेट युग को भी दर्शित किया गया है। आदिम शैल चित्रकारों ने आखेट दृश्य को प्रस्तुत किया है। यहां हिरण मानव आकृतियां एवं खेती तथा पशुपालन, सूर्य चक्र, देव आकृति प्रदर्शित किए गए है। रायगढ़ जिले में प्रागैतिहासिक कालीन शैल चित्रों में प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति उत्कृष्ट रूप में अभिव्यक्त हुई है और यह पुरातत्वविदों के लिए अनुकरणीय है। रहस्य एवं रोमांच से भरपूर इन शैल चित्रों में अभी भी बहुत कुछ खोजना शेष है। उस काल में जीवन कैसे था रचनात्मकता किस तरह की थी। इनका वैज्ञानिक विश्लेषण करने पर मानव विकास के क्रम की कई तस्वीरें सामने आएगी।
इस सत्य को झूठलाया नहीं जा सकता कि – आज भी ग्रामीण लोगों के द्वारा कबरा पहाड़ शैलाश्रय से व उसमें बने चित्रों को लेकर कई रोचक बातें प्रचलित है। कबरा पहाड़ के चित्रों को गांव वाले ( ठाकुरगुड़ी ) देव स्थान मानते हैं और प्रतिवर्ष होली तिथि को वहां रात भर विविध अनुष्ठान, पूजा, नाम यज्ञ का निरंतर गायन होता रहता है। जिसमें आसपास के गांव लोईंग, जुडऱ्ा, विश्व नाथ पाली कोतरापाली के लोग भी शामिल होते हैं। पूजा अनुष्ठान में महिला पुरुष समान रूप से भाग लेते हैं लेकिन महिलाओं को वहां चढ़ी प्रसाद खाने की मनाही है। होली के अलावा नवरात्रि और महाशिवरात्रि के अवसर पर भी लोग यहां आकर पूजा करते हैं। लोगों का मानना है कि – यहां उन के पूर्वजों का खजाना गड़ा हुआ है। इतना खजाना है कि – संसार को ढाई दिन तक खाना खिलाया जा सकता है। पूर्वजों के बने इन चित्रों और खजाने की रक्षा करती है शैलाश्रय की दीवार की ऊंचाइयों पर अनेक छत्तों में मौजूद मधुमक्खियों की फौज, कहा जाता है कि – गांव वालों को कभी-कभी रात में उक्त पहाड़ पर अचानक प्रकाश चमकता हुआ दिखता है। गांव के लोगों में यह मान्यता आज भी है कि – कोई कीमती वस्तु या पशुधन खो जाता है तो वह कबरापाट देवता से मन्नत करते हैं जिसमें खोई हुई वस्तु मिल जाती है और फिर पूजा कर प्रसाद चढ़ा दिया जाता है। कबरा पहाड़ जहां गर्भस्थ महिला और मासिक हुई महिलाएं नहीं जाती है।यह पहाड़ सिर्फ रायगढ़, छत्तीसगढ़, देश के लिए नहीं अपितु विश्व के लिए भी एक धरोहर है।
सूर्यकांत शुक्ला
जिला प्रबंधक नाआनिगम रायगढ़
कबरा पहाड़ मानवीय सभ्यता की अमिट छाप है :
