रायगढ़। जैसे-जैसे मतगणना की तारीख करीब आते जा रही है कि विधानसभा चुनाव के परिणाम की उत्सुकता बढ़ती जा रही है। जहां एक तरफ अपने-अपने पसंदीदा प्रत्याशी की जीत को लेकर राजनीतिक दलों से जुड़े लोग दावे कर रहे हैं। वहीं आम जनता में इन दावों को लेकर कहीं संशय तो कहीं विश्वास की भावना प्रबल होती दिख रही है। रायगढ़ जिले के चारों सीटों को लेकर इस तरह की परिस्थितियों सामने आ रही है। हालांकि चारों सीटों पर मुकाबला सीधा रहा तो माना जा रहा है कि निर्दलीय प्रत्याशियों की स्थिति निर्णायक हो सकती है। जबकि राजनीति के जानकारी की माने तो मतदान के ही दिन तय हो गया था कि किसके माथे पर ताज होगा, लेकिन मतदान और मतगणना के बीच लंबा वक्त होने के चलते परिणाम में उलट-फेर की आशंका जताई जा रही है। जो वास्तविकता से कोसों दूर है। रायगढ़ जिले में इस बार के विधानसभा चुनाव को लेकर शुरू से ही अलग-अलग तरह की स्थितियां बनने की संभावना जताई जा रही थी। लेकिन चुनावी प्रक्रिया शुरू होने के साथ जनता के रुझान स्पष्ट संकेत देते रहे कि रायगढ़ सीट की तस्वीर बदल सकती है। जिला मुख्यालय की यह सीट पर भाजपा और कांग्रेस ने अपनी पूरी ताकत झोंक कर चुनाव को अपने पाले में करने की पूरी कोशिश की। इसके अलावा निर्दलीय प्रत्याशियों ने भी अपने-अपने स्तर पर सरकार की एंटिइंकमबेसी को अपने पक्ष में करने का जोर लगाया। नतीजन मतदान की तारीख आते-आते समूचे रायगढ़ विधानसभा क्षेत्र में एक राजनीतिक दल के प्रत्याशी का ग्राफ इतनी तेजी के साथ उभरा जो सीधे तौर पर मतदान केन्द्रों पर भी नजर आया। अब मतदान के बाद भाजपा कांग्रेस में अपने-अपने प्रत्याशी की मजबूत स्थिति का दावा भी शुरू हो गया है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर बाकायदा आंकड़े भी परोसे जा रहे हैं। जिससे आम जनता में जहां एक तरफ परिणाम को लेकर उत्सुकता बढ़ती जा रही है वहीं सेशय की स्थिति भी उत्पन्न हो रही है। हालांकि राजनीति के जानकारों की माने तो मतदान के दिन ही जनता ने निर्णय ले लिया है जो ईवीएम में है। ऐसी स्थिति में तरह-तरह के दावे मुंगेरीलाल के हसीन सपने की तरह है जो नींद टूटने पर टूट जाते हैं। बताया जाता है कि रायगढ़ जिले के चारों सीट पर भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधी टक्कर रही। भाजपा इस चुनाव को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की गारंटी से जोडक़र जनता में विश्वास जगा रही थी। जबकि कांग्रेस छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के भरोसे चुनाव मैदान में ताल ठोक रही थी। मतदान के दिन जनता को निर्णय लेना था उनका निर्णय 17 नवंबर को जिले के सभी मतदान केन्द्रों में लिया जा चुका है। मतदान केन्द्रों में दिखे रुझान को झुठलाने की कोशिश यह दर्शाती है कि सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं। जनता के विश्वास पर खरे उतरे व्यक्ति के हाथों में नेतृत्व पर निर्णय हो चुका है, मतदान पूर्ण होने के बाद उस पर बदलाव की उम्मीद संभव ही नहीं। परिणाम वही आएगा जिसे जनता ने स्वीकार किया है। स्थिति जिले के रायगढ़ सीट के अलावा खरसिया, धरमजयगढ़, और लैलूंगा सीट पर भी है।
चौंकाने वाले परिणाम आ सकते हैं सामने
इस विधानसभा चुनाव को 2003 के विधानसभा चुनाव से जोडक़र देखा जा रहा है। राजनीति की जानकारों की माने तो 2000 में छत्तीसगढ़ राज्य गठन के साथ छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सत्ता पर रही। लेकिन 2003 के चुनाव में सत्ता परिवर्तन का अंडर करंट इतनी तेजी से फैली कि कांग्रेस को सरकार से हाथ धोना पड़ा। रायगढ़ जिले की पांचो सीट तत्कालीन सीट में से सिर्फ खरसिया का गढ़ कांग्रेस के हाथ आया। मौजूदा दौर में रायगढ़ जिले के चारों सीट पर बदलाव के संकेत बताए जा रहे हैं। यही वजह है कि इस चुनाव को 2003 के विधानसभा चुनाव से जोडक़र अनुमान लगाया जा रहा है। बताया जाता है कि बीते 20 वर्षों में कई तरह के बदलाव हुए हैं, इस बदली हुई राजनीति में चुनाव परिणाम बेहद चौंकाने वाले हो सकते हैं।
रायगढ़ में नई इबारत लिखने के संकेत
इस चुनाव पर गौर करें तो रायगढ़ सीट प्रदेश के कुछ सीटों की तरह हाई प्रोफाइल सीट की श्रेणी में आ गया। भाजपा के प्रदेश महामंत्री पूर्व आईएएस ओपी चौधरी के रायगढ़ सीट से चुनाव मैदान में उतरने की घोषणा के साथ ही रायगढ़ सुर्खियों में है। खास बात यह है कि 2018 के चुनाव में खरसिया से पराजित होने के बाद भी इस बार ओपी चौधरी को लेकर रायगढ़ विधानसभा क्षेत्र में जिस तरह का रुझान सामने आया उसे लगता है कि रुझान यदि मतदान में परिवर्तित हुआ होगा तो बढ़त ऐतिहासिक मानी जा सकती है। आगामी 3 दिसंबर को आने वाला परिणाम नई ईबारत लिख सकता है।
खरसिया में कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती
इस चुनाव में खरसिया विधानसभा चुनाव भी बेहद सुर्खियों में रहा। वजह इस बार भाजपा ने साहू समाज के महेश साहू पर दाव लगाकर बाजी पलटने की राजनीति बनाई। राजनीति की जानकारों की माने तो इस क्षेत्र में लंबे अरसे से भाजपा अपनी जमीन तलाश रही है। लेकिन कांग्रेस का अभेद गढ़ नहीं हिला इस चुनाव में जातीय समीकरण के जाल में कांग्रेस को उलझाने की कोशिश भी हुई। अब इसमें भाजपा को कितने सफलता मिली यह तो परिणाम के दिन ही पता चल पाएगा, लेकिन खरसिया में वक्त के साथ युवाओं में बदलाव के संकेत देखे जा रहे थे। ग्रामीण क्षेत्रों में मोदी की गारंटी को लेकर रुझान भी सामने आ रहा था। अब भूपेश के भरोसे पर जनता ने विश्वास जताया या अपनी परंपरा को कायम रखने की कोशिश मतदान केन्द्रों में हुई फिलहाल इस पर अनुमान लगाना मुश्किल है। लेकिन बेहद करीबी मामला होने की भी संभावना जताई जा रही है। हालांकि राजनीति की जानकारों की माने तो 2018 के चुनाव में क्षेत्र की जनता ने नंद कुमार पटेल की विरासत को हर हाल में बरकरार रखने का संदेश दिया। जिसे इस बार भी जारी रखने की उम्मीद की जा सकती है। परंतु बीजेपी के जातीय समीकरण साधने की रणनीति सफल होने की स्थिति में बेहद चौंकाने वाले परिणाम सामने आ सकते हैं। इस बार भी खरसिया को लेकर कौतूहल ज्यादा ही है, अब देखना है कि 3 दिसंबर को क्या जनादेश सामने आता है।
जनादेश ईवीएम में पर रोज हो रहे नए दावे
सोशल मीडिया से लेकर आम जुबान पर चल रही आंकड़ेबाजी, कहीं संशय तो कहीं विश्वास की भावना प्रबल
