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Reading: शरद पूर्णिमा पर निभाई जाएगी सैकड़ों वर्ष पुरानी परम्परा
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NavinKadam > रायगढ़ > शरद पूर्णिमा पर निभाई जाएगी सैकड़ों वर्ष पुरानी परम्परा
रायगढ़

शरद पूर्णिमा पर निभाई जाएगी सैकड़ों वर्ष पुरानी परम्परा

कर्मागढ़ मे होगी देवी की आराधना

lochan Gupta
Last updated: October 27, 2023 1:13 am
By lochan Gupta October 27, 2023
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4 Min Read

रायगढ़। ऐसी मान्यता है कि शरद पूर्णिमा पर भगवान श्री कृष्ण महारास रचाते हैं। चन्द्रमा की सुंदरता भी इस दिन देखते ही बनती है। इस दिन के बारे में कई किवदंतिया भी प्रचलित हैं, वहीं छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में शरद पूर्णिमा उत्सव बड़े ही अनोखे तरीके से मनाया जाता है। कर्मागढ़ में शरद पूर्णिमा पर आयोजित होनें वाले इस उत्सव को देखने के लिये आसपास क्षेत्र से हजारों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं।
छ्त्तीसगढ़ के लोगों के लिए तो सामान्य सी परंपरा है, पर दूसरे लोगों के लिए यह प्रथा रौंगटे खड़े कर देती है। इस दिन यहां पर बकरों की बलि तो दी ही जाती है और इनका खून पिया जाता है। इस दिन यहां हजारों की संख्या में दूर-दूर से लोग आते हैं। रायगढ़ से करीब तीस किलोमीटर दूर ग्राम करमागढ़ में मानकेश्वरी देवी का प्रसिद्ध मंदिर है। यहीं पर यह विचित्र परंपरा करीब 600 सालों से निभाई जा रही है। मानकेश्वरी देवी रायगढ़ राजपरिवार की कुल देवी भी है। यहां ऐसी मान्यता है कि इस दिन बैगा के शरीर में देवी का आगमन होता है। और उसी रूप में वह बलि दिए हुए पशुओं का खून पीता है। खून पीता हुआ भयभीत कर देता है, इसके बाबजूद भी यहां आने वाले लोग उसको छूने के लिए उसके पीछे भागते हैं।
जो उसे छू लेता है वह अपने आपको धन्य मानता है। ऐसा माना जाता है कि जो बैगा को इस दौरान छू लेगा उसकी मन्नत पूरी हो जाती है। यह क्रम कई घंटों तक चलता है। या कहा जाए की जब तक उसके उपर देवी का वास रहता है तब तक लगातार कई पशुओं की बलि दी जाती रहती है, और बैगा खून पीता रहता है। माना जाता है कि जैसे ही बलि देना शुरू होता है उसी समय देवी उसके शरीर में प्रवेश करती है।
घरों से निकलने की मनाही
जानकारी के अनुसार पूर्णिमा के एक दिन पहले रात के समय के गोंडवाना जाति की परंपरा के अनुसार मंदिर के अंदर एक गुप्त अनुष्ठान कराया जाता है। अनुष्ठान में राजघराने के सदस्य शामिल होते हैं। इस अनुष्ठान से पहले पूरे गांव में मुनादी (ऐलान) फेरी जाती है। जिसमें कहा जाता है कि कोई भी ग्रामीण अपने घर से बताए गए समय पर बाहर नहीं निकले। और ऐसा होता भी है। ऐसा कहा जाता है कि निर्धारित समय पर देवी का आगमन मंदिर में होता है। उस रात की पूजा के बाद दूसरे दिन आदिवासी वाद्य यंत्रों करमानृत्य के बीच दोपहर से यह विधि-विधान से पूजा शुरू होती है।
क्यों हुई शुरुआत
बताया जाता है कि आज से करीब 600 साल पहले हिमगीर रियासत के युद्ध में हारे हुए राजा को जंजीरों से बांधकर देश निकाला दे दिया गया था। भटकता हुआ राजा करमागढ़ पहुंच गया। राजा को देवी ने दर्शन देकर जंजीरों से मुक्त कर दिया था। ऐसा ही एक वाकया सन 1780 की बताई जाती है। ईस्ट इंडिया कंपनी ने लगान की वसूली के लिए रायगढ़ और हिमगीर पर आक्रमण किया। युद्ध करमागढ़ के जंगल पर हुआ। मंदिर से मधुमक्खी व जंगली कीटों ने अंग्रेजों की सेना पर आक्रमण कर दिया। इस हमले से अंग्रेज हार गए। इस घटना के बाद अंग्रेजों ने रायगढ़ स्टेट को आजाद घोषित कर दिया। इस बार यह परम्परा जिसने की अब मेले का रूप ले लिया है 27 अक्टूबर को कर्मागढ़ मे मनाया जायेगा।

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