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NavinKadam > रायगढ़ > राज्य अलंकरण से सम्मानित अरुण मेहर
रायगढ़

राज्य अलंकरण से सम्मानित अरुण मेहर

बुनकरों को दी नई पहचान, फिर से जलाई रोजग़ार की जोत

lochan Gupta
Last updated: June 20, 2025 11:52 pm
By lochan Gupta June 20, 2025
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5 Min Read

लैलूंगा/रायगढ़। एक समय था जब कुंजारा गाँव के बुनकरों का चर्खा थम गया था। हाथकरघा जैसे पारंपरिक काम की लय टूटी हुई थी, बुनकरों के सपनों की डोरी उलझ चुकी थी। लेकिन आज उसी गाँव में 40 से अधिक बुनकर आत्मनिर्भरता की मिसाल बन चुके हैं—इस क्रांति के सूत्रधार हैं राज्य अलंकरण से सम्मानित अरुण मेहर।
बुनकरी—एक पारिवारिक विरासत
ग्राम कुंजारा के निवासी जिवर्धन मेहर बताते हैं, ‘हाथ करघा बुनकरी हमारा पारंपरिक काम है। यह हमें हमारे पूर्वजों से विरासत में मिला है। हम स्कूली पढ़ाई के बाद बचपन में ही इस काम को सीखने लगे थे और कम उम्र से ही इसमें गहरी रुचि थी।’ पर जब इस विरासत को रोजग़ार का ज़रिया बनाने की कोशिश की गई, तभी यह ठप पड़ गया।
अरुण मेहर से मुलाकात—एक मोड़
साल 2012 में जिवर्धन मेहर की मुलाकात हुई अरुण मेहर से। उन्होंने जब अपने हालात बताए, तो अरुण जी ने एक वादा किया ‘काम फिर से शुरू होगा और अब कभी बंद नहीं होगा।’ यही वाक्य था जिसने बुझते आत्मविश्वास को फिर से जगा दिया। सिर्फ शुरुआत नहीं, एक आंदोलन की नींव रखी शुरुआत में यह प्रयास अकेले जिवर्धन मेहर ने किया। फिर धीरे-धीरे गाँव के अन्य बुनकर जुड़ते चले गए। लैलूंगा ब्लॉक में यह पहल एक बुनकरी आंदोलन बन गई। आज 30-40 बुनकर प्रत्यक्ष रूप से इससे जुड़ चुके हैं, और इस साल यह आंकड़ा 50 पार करने की उम्मीद है। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से लगभग 80 से अधिक लोगों को आजीविका इस कार्य से मिल रही है।
कोरोना काल में भी थमी नहीं बुनकरी
जब पूरा देश कोविड-19 महामारी से जूझ रहा था, तब भी बुनकरों का काम चलता रहा। यह केवल एक योजना नहीं, बल्कि दृढ़ संकल्प का परिणाम था। अरुण मेहर ने कभी भी किसी बुनकर के प्रस्ताव को ठुकराया नहीं, बल्कि उसे क्रियान्वित कर दिखाया।
‘करुणा माता पुरस्कार’ से सम्मानित
अरुण मेहर का अथक प्रयास केवल स्थानीय नहीं रहा। उनके योगदान को राज्य शासन ने भी सराहा और साल 2024 में ‘करुणा माता पुरस्कार’ से नवाज़ा गया। महामहिम उप-राष्ट्रपति जगदीप धनकख के कर-कमलों से उन्हें यह सम्मान रायपुर में प्रदान किया गया। यह सम्मान न केवल अरुण मेहर के लिए गर्व की बात है, बल्कि पूरे रायगढ़ जि़ले, विशेषकर लैलूंगा ब्लॉक के लिए सम्मान की बात है।
बुनकरों की बात बनी समाज की बात
अरुण मेहर ने केवल बुनकरों को ही नहीं, बल्कि अन्य समाजों को भी साथ लिया। वे कहते हैं, हमारा उद्देश्य सिर्फ व्यवसाय नहीं, बल्कि समुदाय का पुनर्निर्माण है। हम सबको साथ लेकर चलने में विश्वास रखते हैं। उनके प्रयासों ने न केवल रोजग़ार सृजित किया, बल्कि पारंपरिक कारीगरी को भी एक नई पहचान दी। आज ‘कुंजारा की साड़ी’ और अन्य करघा उत्पाद बाज़ार में लोकप्रिय हो रहे हैं।
बुनकरों की ओर से कृतज्ञता
जिवर्धन मेहर, जो आज खुद एक बुनकर कमान प्रमुख हैं, कहते हैं, हम सभी बुनकर परिवारों की ओर से भगवान से प्रार्थना करते हैं कि अरुण मेहर को और अधिक मजबूती और सफलता मिले ताकि और भी परिवारों का पालन-पोषण इस काम से हो सके।
सारांश: जहाँ चाह वहाँ राह
अरुण मेहर ने यह साबित कर दिया कि अगर इरादा मजबूत हो, तो कोई भी विरासत सिर्फ कहानी नहीं रह जाती, वह जीवंत इतिहास बन जाती है। आज कुंजारा, लैलूंगा और ब्लॉक के गाँवों में चर्खों की घरघराहट केवल एक ध्वनि नहीं, बल्कि आशा की आवाज़ बन चुकी है।
बार-बार असफल प्रयास, फिर भी उम्मीद बाकी रही
जिवर्धन मेहर और उनके जैसे अन्य बुनकर कई वर्षों तक काम को फिर से शुरू करने की कोशिश करते रहे। लेकिन न महाजन मदद को आए, न कच्चा माल समय पर मिल सका। ‘हम महाजनों से मिले, पर किसी ने सप्लाई की जिम्मेदारी नहीं ली। अगर कुछ ने काम शुरू भी कराया, तो दो महीने में ही बंद करवा दिया,’ जिवर्धन बताते हैं। विवशता के चलते बुनकरों को 12 वर्षों तक मजदूरी करनी पड़ी। हाथकरघा की जगह अब फावड़ा और बेलचा उनकी रोज़ी बन गई थी।

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