सौ वर्षों की वैचारिक यात्रा…
का सार संघ से जुड़े एक कार्यकर्ता के विचारो से भली भांति समझा जा सकता है…घटना 1988 के दौरान की है राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की पृष्ठभूमि से जुड़े स्वर्गीय जगदीश अग्रवाल शिशु मंदिर के अध्यक्ष रहे और उस दौर में दाखिले की होड मची होती थी..कक्षा नौवीं में प्रवेश के लिए 60 प्रतिशत के निर्धारित थे निर्धारित अंक से केवल एक अंक कम होने पर स्वर्गीय जगदीश प्रसाद ने अपने बेटे का दाखिला नहीं लिया प्रधान आचार्य ने स्मरण कराते हुए कहा कि गणेश अग्रवाल आपका ही बेटा है स्वर्गीय जगदीश प्रसाद ने कहा मुझे स्मरण है कि गणेश अग्रवाल मेरा बेटा लेकिन वो स्कूल में मेरा बेटा नहीं है प्रवेश के लिए नियम सभी के लिए बराबर है..मेरा दाखिला रद्द हो गया… पिता को बोलने की हिम्मत नहीं थी मैने मां को बताया.. मां ने पिता से कहा ये कैसी सेवा है अपने बेटे को दाखिला नहीं दिला पाए…पिता ने कहा स्कूल में मै केवल गणेश अग्रवाल का पिता नहीं बल्कि सभी बच्चों का पिता हूं सभी के लिए नियम एक है… राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लिए ऐसे ही विचारों का महत्व है…हेडगेवार जी ने जब इस वैचारिक यात्रा का बीज बोया तब उन्हें यह मालूम था कि बहुत से लोग ऐसे है जो सत्ता की चकाचौंध में विलासी हो जाते है…बहुत से लोग ऐसे भी है जिन्हें सत्ता की चकाचौंध प्रभावित नहीं कर सकती…राष्ट्र की सेवा को मूलमंत्र बनाने वाले हेडगेवार जी का चिंतन रहा कि सेवा के लिए सत्ता,परिस्थिति,प्रचार, विशेष गणवेश आवश्यक नहीं… सत्ता में बैठे लोग ही बेहतर तरीके से सेवा कर सके यह कोई सेवा का निर्धारित मापदंड नहीं ..सत्ता के रसूख के बिना भी सेवा की जा सकती है बस राजनीति के जरिए सेवा का विस्तार व्यापक हो सकता है ..एक पिता ने अपने बेटे के लिए स्कूल प्रवेश का नियम नहीं तोड़ा यही संघ के लिए विचार की यात्रा का सारांश है ना जाने कितने लोगों ने राष्ट्र की सेवा के लिए अपने जीवन का होम कर दिया और ना जाने कितने लोग कतार में है..वैचारिक यात्रा को समझने के लिए विचारवान होना अत्यधिक आवश्यक है… विचार का बीज मनुष्य को मजबूत बनाता है और यही मनुष्य परिवार और राष्ट्र को छुटिया इकाई के रूप में मजबूत करता है.. स्वयं सेवक संघ से जुड़ा सेवक हर दिन विचारों के घी की ज्योत जलाकर मां भारती की पूजा अर्चना करता है..