मैं महाराष्ट्री हूँ, परंतु हिंदी के विषय में मुझे उतना ही अभिमान है, जितना किसी हिंदी भाषी को हो सकता है। मै चाहता हूँ, कि इस राष्ट्रभाषा मे सामने भारतवर्ष का प्रत्येक व्यक्ति इस बात को भूल जावे कि मैं महाराष्ट्री हूँ, मैं बंगाली हूँ, मैं गुजराती हूँ, या मै मद्रासी हूँ। ये मेरे 35 वर्ष के विचार है, और तभी से मैंने इस बात का निश्चय कर लिया है, कि मैं आजीवन हिंदी भाषा की सेवा करता रहूँगा।
भरतपुर हिंदी सम्पादक सम्मेलन(1927) के अध्यक्षीय उद्बोधन मे कर्मवीर के संपादक श्री पं.माखनलाल चतुर्वेदी के कथनानुसार आज की हिंदी भाषा के युग को पण्डित महावीर प्रसाद जी व्दिवेदी व्दारा निर्मित तथा तेज को पण्डित माधवराव सप्रे व्दारा निर्मित कहना चाहिए।
‘‘कर्म है अपना जीवन प्राण/ कर्म में बसते है भगवान
कर्म है मातृभूमि का मान/ कर्म पर आओ हो बलिदान’’
सप्रे जी ने भारत की राष्ट्रीयता का शंखनाद किया और अर्थशास्त्र की हिंदी शब्दावली तैयार की तो हिंदी पत्रकारिता को संस्कारित किया हिंदी समालोचना शास्त्र का विकास किया। आज से 154 वर्ष पहले जन्म लिए हमारे माधवराव सप्रे जी का परिवार, कभी मराठा शासकों की प्रशासनिक व्यवस्था सँभालने के लिए महाराष्ट्र से मध्यप्रदेस के दमोह जीले आये। सप्रे परिवार कई पीढिय़ों तक संपन्न और खुशहाल था। फिर वक्त के थपेड़ो मे विपन्न हुआ। रोजी-रोटी के लिए विस्थापित हुआ। माधवराव कुशाग्र बुध्दि के थे, उस समय बी.ए, पास करना बहुत कठिन माना जाता था।
पंडित माधवराव सप्रे जी को देश के अनेक मनीषियों ने इनके अवदान को अपने नजरिए से देखते हुए उनके बहुआयामी व्यक्तित्व के विस्तृत रूप के बारे में कहा कि वे कर्मयोगी, चिंतक, हिंदी मे समालोचना का प्रवर्तक, निष्पृह देश प्रेमी, पिछड़े क्षेत्र (छतीसगढ़) में पत्रकारिता के पुरोधा, योगी और आदर्श महामानव कहा है और माना भी है। मातृ भाषा मराठी होने के कारण व उनके जीवन मे महाराष्ट्र के चिपलूणकर, लोकमान्य तिलक, आगरकर का आदर्श उनकी आँखों के सामने हमेशा झूलता रहता था। उनका कहना था के जब ये महानुभव पत्र, लेखन और भाषण के व्दारा अपनी सोई हुई जनता को जगाने का कार्य कर सकते है, तो मैं क्यों न इन्हीं का अनुसरण करूँ? इसी के साथ उनके अंदर देशसेवा की अन्त: प्रेरणा इतनी प्रबल थी कि न तो वो कभी सरकारी नौकरी की तरफ आकर्षित हुए और न तो वकालत करने का सोचा धन कमाने के लिए।
पंडित माधवराव सप्रे का जन्म 19 जून 1871 को मध्य प्रदेश के पथरिया (जिला दमोह) गांव में हुआ था। वे हिंदी भाषा के वरिष्ठतम पत्रकार और साहित्यकार थे, उनके जीवन में कार्य क्षेत्र का स्थल मध्य-प्रदेश व छतीसगढ़ अधिकतम रहा। जिन्होंने छत्तीसगढ़ राज्य में पत्रकारिता की नींव रखी। उनकी प्रारंभिक शिक्षा छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में अपने मझले भाई बाबूराव के पास रहकर हुई। मिडिल की परीक्षा उन्होंने 1887 मे अच्छे अंकों से पास करने के कारण उन्हें 7 रूपये की छात्रवृति मिलने लगी थी। हाई स्कूल की शिक्षा रायपुर में की जहाँ श्री नंदलाल दुबे और श्री बामनराव ओक उनके शिक्षक थे। इन्हीं शिक्षकों की प्रेरणा से सप्रे जी को हिंदी मे लेखन के लिए प्रोत्साहन मिला। उन्होंने उच्च शिक्षा जबलपुर, ग्वालियर और नागपुर में प्राप्त की।
उनको सरकारी नौकरी के अवसर मिले परंतु उन्होंने कोई सरकारी नौकरी नहीं की और आजीवन हिंदी भाषा और देश की सेवा करने का संकल्प लिया। सप्रे जी का व्यक्तित्व और कृतित्व साहित्यकारों और पत्रकारों सहित आम जनता के लिए भी प्रेरणादायी है। कानुन की पढ़ाई बीच मे ही छोडक़र अत्मनिर्भर बनने की इच्छा से 50 रूपये मासिक पेंड्रारोड़ के राजकुमार के शिक्षक हो गए। उन पर बालगंगाधर तिलक की विचारधारा का प्रभाव बहुत ही अधिक था। नौकरी से पैसा बचाकर हिंदी की एक मासिक पत्र निकाल कर देश की सेवा करना चाहते थे। यहीं मित्रों के सहयोग से सिक पत्रिका को अंतिम रूप मिला। पत्र का नाम ‘छतीसगढ़ मित्र’ पंडित माधव राव सप्रे ने जनवरी, 1900 में श्री रामराव चिंचोलकर के सहयोग से छत्तीसगढ़ के पेंड्रा (जिला बिलासपुर के पेन्ड्रारोड़ नामक जगह से) हिंदी मासिक पत्रिका ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का संपादन एवं प्रकाशन प्रारंभ किया। यह तत्कालीन छत्तीसगढ़ राज्य में हिंदी भाषा की पहली पत्रिका थी। अत: शिक्षा और जनजागरण के प्रचार-प्रसार की इसकी पहली जिम्मेदारी थी। इसके प्रवेशांक में ही ‘आत्म परिचय’ शीर्षक से संपादक ने लिखा है ‘‘सम्प्रति छतीसगढ़ विभाग को छोड़ ऐसा एक भी प्रान्त नहीं है जहां दैनिक, साप्ताहिक, मासिक या त्रैमासिक पत्र प्रकाशित न होता हो। इसमें कुछ संदेह नहीं कि सुसंपादित पत्रों के व्दारा हिंदी भाषा की उन्नति हुई है। अतएव यहाँ भी ‘छतीसगढ़ मित्र’ हिंदी भाषा की उन्नति करने में विशेष प्रकार से घ्यान दे। आजकल भाषा में बहुत कूड़ा कर्कट जमा हो रहा है, वह न होने पावे इसलिए प्रकाशित ग्रंथों पर प्रसिध्द मार्मिक विव्दवानों के व्दारा समालोचना भी करें।’’ स्पष्ट है कि यह पत्र पिछड़े क्षेत्र में शिक्षा के प्रसार, हिंदी को परिमार्जित करने और समालोचना को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से निकाला गया था। इस पत्रिका में प्रकाशित ‘सप्रे जी’ की कहानी ‘टोकरी भर मिट्टी’ को हिंदी की पहली मौलिक कहानी होने का गौरव प्राप्त है। इस पत्र के विषय में यह कहने मे कोई संदेह नहीं की यह पत्र तत्कालीन मानदण्डों से परिपूर्ण पत्र था। समाचार, कहानियाँ, कविताएँ, प्रर्थना, छोटे-छोटे व्यंग्यात्मक और उपदेशात्मक लेख, प्रेरित पत्र, नीति शास्त्र से संबंधित सामाग्री, समालोचनाएँ लगातार छपती थी। इस पत्र को कोलकता के ‘भारत मित्र’ के संपादक की सराहनीय प्रशंसा मिली और लगातार जारी रखने के प्रति शुभकामनाएँ। परंतु मुद्रण रायपुर फिर नागपुर से होता था उस समय आज की तरह विज्ञापनों का चलन नहीं था जिसके कारण वो मात्र ग्राहक शुल्क पर निर्भर व उसके व्दारा ही निकलने वाला पत्र था। कुछ समय पश्चात बंद कर सप्रे जी नागपुर चले गये वहां से उन्होंने राष्ट्रीय साहित्य के निर्माण का कार्य शुरू किया जो ‘हिंदी ग्रंथमाला’ के रूप मे 1905-1906
उन्होंने कई महत्वपूर्ण पुस्तकों की रचना की तथा लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक द्वारा लिखित ‘गीता रहस्य’ का जो मराठी में लिखा गया था। उसका हिन्दी अनुवाद भी किया। सप्रे जी ने राव बहादुर चिन्तामणि विनायक वैद्य कृत मराठी ग्रन्थ ‘श्रीमन महाभारत-मीमांसा’ का सरल हिन्दी में अनुवाद ‘महाभारत मीमांसा’ के नाम से किया।
छत्तीसगढ़ राज्य को स्वर्गीय पंडित माधव राव सप्रे जैसे महान तपस्वी और सफल लेखक और पत्रकार के रूप में गौरव प्राप्त है। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में सप्रे जी ने अपनी लेखनी से आम जनता में राष्ट्रीय चेतना के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने 1912 में रायपुर में जानकी देवी कन्या विद्यालय की स्थापना की और 1920 में राष्ट्रीय विद्यालय की स्थापना में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया।
सप्रे जी ने हिंदी साहित्यकारों को संगठित करने के लिए मई 1906 में नागपुर से हिंदी गणितीय पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया, लेकिन राष्ट्रवादी विचारों पर आधारित इस पत्रिका की बढ़ती लोकप्रियता के कारण तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने 1908 में इसका प्रकाशन बंद कर दिया। इतना ही नहीं, ब्रिटिश सरकार ने 22 अगस्त 1908 को उन्हें भारतीय दंड संहिता की धारा 124 (ए) के तहत आजीवन कारावास की सजा भी सुनाई और उन्हें जेल हो गई हिरासत में उनकी तबीयत खराब होने लगी। इसी समय उनके मंझले भाई बाबूराव की तबीयत भी ठीक नहीं रहती थी, जिनके ऊपर पूरे परिवार के भरण-पोषण का दायित्व था। वे सरकारी नौकरी मे थे। घर की दशा बहुत कराब थी। सप्रे जी के कुछ महीनों बाद वे जेल से उनके मित्रों ने उनके भाई बाबूराव के दबाव में माफीनामा लिख कर के रिहा होने का प्रस्ताव रखा। जो सप्रेजी को स्वीकार नहीं था। परंतु भाई बाबूराव की आत्महत्या की धमकी के कारण सप्रे जी को माफीनामें पर उनके व्दारा हस्ताक्षर करने को विवश होना पड़ा। उन्हें सशर्त रिहा करवा दिए गया। यद्यपि वे जानते थे कि उनके सार्वजनिक जीवन का सत्यानाश हो जाएगा। पर इस कष्ट का बोध जीवन भर उनके साथ रहा। इस रिहाई से परिवार को तो राहत मिली पर वे खुद को कभी माफ न कर पाए। इसके परिणाम स्वरूप कठोर प्रयाश्चित का मार्ग चुना, शांति और भावी मार्ग की तलाश मे वर्धा के निकट हनुमानगढ़ मे गुरूवर पं. श्रीधर पराँजपे के आश्रम मे गए, गुरू आज्ञा से 13 माह एकान्तवास मे बिताए। मधुकरी वृत्ति अपनाई। पगड़ी, जूते-चप्पल तक परित्याग कर दिया। मन की पवित्रता के लिए साधु का जीवन व्यतीत किया। पश्चात रायपुर(छतीसगढ) रामदासीमठ की स्थापना की, आध्यात्मिकता की ओर निकल पड़े और अध्यावास और भजन-प्रवचन करते समय बिताने लगे। गुरूदेव जी के परामर्श पर उन्होंने श्रीसमर्थ स्मर्थ रामदास कृत ‘दासबोध’ का पारायम करते हुए उसका हिंदी अनुवाद 1910 में किया और 1913 में वह प्रकाशित हुआ। उसके बाद लोकमान्य तिलक जी का ‘गीता रहस्य’ के अनुवाद का दायित्व भी संभाला 1915 में ‘श्रीमद्भगवतगीता रहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र’ का अनुवाद पूर्ण कर दिया जिसका प्रकाशन 1916 में मे हुआ। इन दोनों ग्रंथों के अनुवाद ने सप्रे जी की क्षमता को जो लोकप्रियता मिली वह शब्दों में बांध पाना कठिन है। लगभग 8 (आठ) वर्षों के एकांतवास के पश्चात सप्रे जी 1916 के नवंबर माह में हिंदी साहित्य सम्मेलन के जबलपुर अधिवेशन में सार्वजनिक रूप से सामने आए।
उन्होंने प्रस्ताव जो रखा वो स प्रकार: ‘भारत वर्ष में शिक्षा प्रसार और विद्या की न्नति के लिए आवश्यक है कि शिक्षा का माध्यम देसी भाषा हो।’ इस जगह पर जबलपुर के प्रसिध्द सेठ गोविंददास का परिचय सप्रे जी से हुआ वे जीवनपर्यंत सप्रे जी के शिष्यवत् रहे।1919 में हिंदी साहित्य सम्मेलन के पटना अधिवेशन मे सप्रे जी का प्रस्ताव था- ‘इस सम्मेलन की सम्मति मे इस बात का त्यंत आवश्यकता है कि राष्ट्रभाषा हिंदी के साहित्य की सर्वागीण उन्नति के लिए देश मे कम से सम एक ऐसी संस्था स्थापित की जाए जहाँ लेखकगण आजीवन साहित्य सेवा के लिए रखे जावें जिनके व्दारा साहित्य के भिन्न-भिन्न अंगों पर उत्तमोत्तम ग्रन्थ निर्माण किए जावें।’ प्रस्ताव की प्रतिक्रिया के स्वरूप सेठ गोविंददास जी व्दारा जबलपुर का उनका शारदा भवन ‘राष्ट्रीय हिंदी मंदिर’ बनाने के लिए समर्पित करते हुए कार्यारम्भ करने के लिए 2500 रूपये देने की घोषणा कर दी। संचालन का दायित्व सप्रे जी को सौंपा गया और यहां से मासिक पत्रिका ‘श्रीशारदा’ का प्रकाशन 1920 में शुरू हो गया, पश्चात व्दारका प्रसाद मिश्र को दायित्व दिया गया। पं. माखनलाल चतुर्वेदी के संपादन में ‘कर्मवीर’ जबलपुर से जो बाद में 1922 में बंद हो गया। यहां यह कहना जरूरी होगा की कानपुर मे माखनलाल चतुर्वेदी जी के जेल से वापस आने के बाद ‘‘प्रताप’’ निकाला और वही महान पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी जी के जेल जाने के कारण सप्रे जी और गणेश जी के आग्रह पर फिर 4 अप्रैल 1925 को खंड़वा मे ‘कर्मवीर’ का पुन:प्रकाशन हुआ,इस अखबार के प्रथम पृष्ट पर पं. विष्मुदत्त शुक्ल और पश्चात 1926 से पं.विष्णुदत्त शुक्ल के साथ पं. माधवराव सप्रे की स्मडति में लिखा होता था। सप्रे जी ने एकांतवास में ही उन्होंने किन्हीं भी अनुष्ठानों मे नाम नहीं देने का संकल्प ले लिया था इसलिए वे इसके संपादक बनने के लिए राजी नहीं हुए।
लोगों का आक्षेप रहा है कि सप्रे जी योजनाओं को बनाते है, उन्हें कार्यरूप में परिणत करते है लेकिन उनके साथ स्वयं अंत तक नहीं रहते, दूसररों के हाथों मे देते है। उनमें संगठन व्यवस्था की क्षमता न होने के कारण योजनाएँ असफल हो जाती है। चुकिं सप्रे जी आध्यात्मिक वृति के पुरूष थे। वे किसी प्रियसे प्रिय वस्तु या संस्था के साथ आसक्त नहीं हो पाते थे। उनका उद्देश्य यही रहता था कि जनता में से ही योग्य व्यक्तियों के हाथों मे अलिप्तभाव से संस्थाएँ सौंप देनी चाहिए. वे ही धीरे-धीरे उन्हें चलाने की क्षमता प्राप्त कर लेंगें। हर्ष की बात है कि खंड़वा में कर्मवीर-संस्था की जो नींव डाली, वह आज भी जीवित है।
सप्रे जी को उनके अनुवाद के साथ समालोचक के रूप में छतीसगढ मित्र के माध्यम से पंडित माधवराव सप्रे ने हिंदी साहित्य मे समालोचना के प्रतिष्ठित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। विशेषकर याद किया जाता है उस समय की किसी किताब पर अगर पं. माधवराव सप्रे का समालोचना हो गया हो तो उस किताब व उसके लेखक को वो सारी अच्छाई व उसमें निहित कमियों का जो ब्यौरा उपलब्ध होता था वह आगे के लेखन का एक सुंदर आधार बनता था।
समसामयिक सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों पर सप्रे जी के लगभग 200 निबंध अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। 1924 में देहरादून में आयोजित अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन में वे अध्यक्ष चुने गए।
मुख्य कृतियाँ-
स्वदेशी आंदोलन और बॉयकाट, यूरोप के इतिहास से सीकने योग्य बातें, हमारे सामाजिक हास के कुछ कारणों का का विचार, माधवराव सप्रे की कहानियाँ (संपादन:देवी प्रसाद वर्मा)
अनुवाद- हिदी दासबोध (समर्थ रामदास की मराठी में लिखी गई प्रसिध्दि), गीता रहस्य (बालगंगाधर तिलक), श्रीमन महाभारत मीमांसा का अनुवाद हिंदी मे महाभारत मीमांसाके नाम से किया ( महाभारत के पसंहार: चिंताममी विनायक वैद्य व्दारा मराठी में लिखी गई प्रसिध्द पुस्तक)
संपादन- हिंदी केसरी-1907(साप्ताहिक समाच्र पत्र), छतीसगढ़ मित्र-1900 ( मासिक पत्रिका), हिंदी ग्रंथमाला(1906)
इनके योगदान की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम ही होगी, 1902 में उन्होंने नागरी प्रचारणी सभा, काशी के ‘विज्ञान शब्दकोश’ योजना को मूर्तरूप देने की जिम्मेदारी अपने हाथों में ली। पंडि़त माध्वराव सप्रे ने केवल विज्ञान कोश का संपादन किया, बल्कि अर्थशास्त्र की शब्दावली की खोज कर उन्होंने इसे संरक्षित कर समृध्द भी किया। विज्ञान शब्दकोश को समृध्द कर मंजिल तक पहुंचाने मे उनका अविस्मरणीय योगदान रहा। इस कार्य के लिए कई बार वाराणासी की यात्रा करते रहे। प्रखर संपादक के रूप में लोक प्रहरी व सुधी साहित्यकार के रूप में उनकी भूमिका लोक शिक्षक की है। कोशकार और नुवादक के रूप में हिंदी भाषा को समृध्द किया। माधवराव सप्रे जी कहानीकार भी थे। उन्होंने राष्ट्रीय कार्य के लिए उपयुक्त अनेक प्रतिभाओं को परख कर उनका उन्नयन किया।
साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में ऐतिहासिक योगदान देने वाले राष्ट्रीय सृजनशीलता को सम्मानित करने के लिए छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा पंडित माधव राव सप्रे पुरस्कार की स्थापना की गई है। यह पुरस्कार उन लेखकों एवं पत्रकारों को दिया जाता है जो अपनी विशिष्ट सृजनात्मक लेखनी एवं हिंदी भाषा के प्रति समर्पण से राष्ट्र को गौरवान्वित करते हैं।
माधवराव सप्रे जी की स्मृति में एक संग्रहालय और शोध संस्थान जो भोपाल मे स्थित है। इसके विषय में यह भी कहा जाता है कि’ भारतीय इतिहास को महसूस करने का रोमांच प्राप्त करना हो तो इस संग्रहालय को एक बार जरूर देखिए। ‘इस संग्रहालय में आप देखेगें की किस तरह कड़ी मेहनत और निष्ठा से इसे संजोया गया है। बौद्दिक धरोहर की सैकड़ो शोध प्रबंधों के लिए आधार स्त्रोत सामाग्री यहां उपलब्ध है। यहां देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों के 500 से भी अधिक शोधकर्ताओं ने शोध प्रबंध पूरे किए है। इस संग्रहालय ने देश-विदेश के अनेक शोधार्थियों को शोध के लिए कई बार ऐसी दुर्लभ सामग्री उपलब्ध कराई गई है इस तरह इस संग्रहालय का महत्व बहुत ही अधिक है। इस संग्रहालय को देखने का सौभाग्य मुझे 10-11 वर्ष पहले मिला था। एक यात्रा के सिलसिले मे मैं भोपाल जाने का कार्यख3म रहा। इसके विषय में में मेरे कुछ अनुभव इसमें हर तरह के पत्र-पत्रिकों का संग्रह है. 19वीं शताब्दी के ब्रिटिश पत्र-पत्रिकाओं का भी उपलब्ध है। इस संग्रहालय में धरोहर को संरक्षित ही नहीं करता वरन् पुरानी पीढी को अनूठे ढंग से याद भी करता है। मुख्य कक्ष मे विभिन्न साहित्यकारो के चि6 लगे हुए है। वरिष्ठ पत्रकारों की स्मृति में अलग अलग कक्ष बनाए गए है। सप्रे संग्रहालय में ‘राय बहादुर हीरीलाल कक्ष’ जहां गजेटियर्स, इनसाइक्लोपीडिया,एनुअल रजिस्टर्स, रिपोर्ट,दुर्लभ ग्रंथ, पुराने रेडियो और ग्रामाफोन आदि संग्रहित है। पत्रकारिता के रंभ से 1920 तक के समाचार पत्र वाला कक्ष: ‘रामेश्वर गूरू’ के नाम से है। माखनलाल चतुर्वेदी कक्ष-ग्रंथालय को नाम दिया गया, यहा 30हजार से भी अधिक ग्रंथ है। जगदीशप्रसाद चतुर्वेदी-माइक्रोफिल्मिंग और क्मप्यूटर तथा बनारसीदास चतुर्वेदी के नाम सीहित्यकारो –पत्रकारों सहित समाज के विभिन्न क्षेत्रों मे कार्यरत व्यक्तियों के पत्राचार को देखा जा सकता है। देश के विभिन्न विश्वविदयालयों से 500 से भी अधिक इस ग्रंथालय के सहयोग से शेद कार्य किए। यह सब उस काल के इतिहास का प्रमामिक दस्तावेज है। कुछ दाहरम इस ग्रंथालय की उपयोगिता को लेकर इस प्रकार है। सर्वप्रथम जापान की शोधकर्ता ‘‘हिसाए कोमात्सु’’ जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय(दिल्ली)’स्त्री अस्मिता की खोज-हिंदी क्षेत्र में स्त्री व्दारा स्त्री विमर्श’ विषय पर शोध कर रही है। इस सिलसिले में उन्हें 1857 से 1947 के बीच प्रकाशित होने वाली पत्र-पत्रिकाओं की तलाश थी जो महिला पर केन्द्रित हो। यह कहीं भी नहीं मिल पा रही थी। इस संग्रहालय मे जब ये उपलब्ध हुआ तो आँखों से खुशी से आंसू निकल पड़े। इसी प्रकार जर्मनी के ‘मारिस हेल्डन’ और उनकी पत्नी जो बर्लिन विश्वविद्यालय में दक्षिण एशिया के विवाह कानूनों पर शोध कर रहे थे इस संग्रहलाय में उन्हें अपने काम की दुर्लभ सामग्री पाकर अभिभूत थे। कुछ यहां पर ऐसा एक प्रसंग भी बहुत याद किया जाता है वेश्याओं के चरित्र पर आधारित एक पुस्तक ‘नाम चाहिए एक बाप का’ के लेखक- ‘बीरेन गोहिल’ जी के साथ,उनके कुछ लेश संड़े मेल में प्रकाशित हे थे जो संयोग से नके पास उपलब्ध न होने के कारम न्होंने कई सहरो के पुस्तकालयों से प्राप्त करने का प्रयास किया परंतु यह सब उन्हें इस संग्रहालय में मिला। इस संग्रहालय के विषय में डॉ,मंगला अनूजा के नुसार सप्रे संग्रहालय बौध्दिक धरोहर को सहेजने मे पूरी निष्ठा रखती है। इस तरह की प्राप्त समाग्री को उनके प्रदायकर्ता के नाम से ही संरक्षित करता है। वे विश्वसपूर्वक कहती है कि यदि बुजूर्ग पीढी अपनी बौध्दिक विरासत को भावी पीढी के लिए संजोना चाहती है तो वह सप्रे संग्रहालय पर भरोसा कर सकते है।
उनका कृतित्व बहुआयामी है। अवदान असाधारण और कालजयी है। पत्रकारिता, साहित्य-सृजन,राष्ट्रभाषा हिंदी का उन्नयन, जन जागृति, स्वाधिनता आंदोलन, शिक्षा-संस्कार, नई पीढी की दीक्षा इत्यादि विविध क्षेत्रों में सप्रे जी ने आधारभूत कार्य किर्य किय़े है। आज का समय 1871 से 2025 करीब 155वें वर्ष का समय उनके कृतित्व के पुनर्पाठ का सुअवसर है। हम माधवराव सप्रे का महत्व चिरकालिक प्रसंगिकता को अपने अंदर समेटते हुए। नई पीढ़ी के लिए ऐसे अवदान के साथ साहित्य कर्म-पथ को अग्रसर कर गए।
विविधताओं व साहित्यिक संधर्ष,सामाजिक, पश्चाताप के लिए आध्यात्मिक एकांतवास का जीवन, पत्रकारिकता के छेत्र मे अव्दितीय सफलता अर्जित करते हुए पंडित माधवराव सप्रे का निधन 23 अप्रैल 1926 को रायपुर के टाटीपारा स्थित उनके निवास पर हुआ। ऐसे महान व्यक्तित्व को हमारी विनम्र श्रध्दांजलि।
पत्रकारिता के अग्रदूत कहलाने वाले माधवराव सप्रे
पंडित माधवराव सप्रे ‘‘जन्म-19-06-1871’’ ‘‘जयंती-19-06-2025’’
