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NavinKadam > रायगढ़ > रायगढ़ का जन्माष्टमी महोत्सव – कल और आज
रायगढ़

रायगढ़ का जन्माष्टमी महोत्सव – कल और आज

lochan Gupta
Last updated: August 27, 2024 1:33 am
By lochan Gupta August 27, 2024
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6 Min Read

इन दिनों से शहर में जन्माष्टमी मेले की भारी चहल-पहल है। रायगढ़ का जन्माष्टमी महोत्सव बहुत पहले से प्रसिद्ध है लेकिन समय के साथ इसका कलेवर बदल सा गया है। गौरीशंकर मंदिर की सजावट पहले भी बेहद आकर्षक होती थी लेकिन आजकल रंग-बिरंगी एल ई डी लाइट व झालरों की जगमगाहट से दमकता हुआ गौरीशंकर मंदिर एक अलग ही भव्यता का एहसास कराता है। कलकत्ता के फूल सजावट कारीगरों की कला से मंदिर के गर्भगृह की शोभा देखते ही बनती है। पुराने समय में मंदिर के अलावा शहरवासी अपने घरों के बाहर भी अलग-अलग ढंग से सजावट करके कृष्ण जी को विराजित करते थे। अनेक दर्शनार्थी इन स्थानों पर भी प्रसाद और पैसे अर्पण करते थे जो कि आयोजन मंडली के बच्चों के लिये मौज-मजे का विषय होता था। अब यह चलन लगभग समाप्त हो गया है। पहले केवल गौरीशंकर मंदिर के भीतर ही झांकियां होती थी अब इन झांकियों के अलावा श्याम बागीची की मनोरम झांकियां सबको मोहित कर रही हैं। भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं को जीवंत बनाती इन झांकियों के साथ सेल्फी व फ़ोटो खिंचाने में लोगों की खासी दिलचस्पी देखी जाती है। एक परिवर्तन यह दिखता है कि पहले भारी संख्या में आने वाले ग्रामीणजन ठेंठ ग्रामीण पहनावे में बेहद सकुचाये हुये होते थे लेकिन अब पहनावे व चाल-ढाल से यह अंतर करना मुश्किल है कि कौन ग्रामीण है और कौन शहरी है। यह ग्रामीण प्रगति का परिणाम है। पूर्व में आवागमन के साधन सीमित होने के कारण जो लोग ग्रामीण अंचलों से मेला देखने आते थे वे रात्रि में अपने किसी रिश्तेदार के घर अथवा किसी भी शहरवासी या स्कूल की परछी में सो जाते थे। अगली सुबह तालाब में नहा-धोकर दिन में पुन: मेला घूमकर फिर वापस गाँव जाते थे। पहले सीमित पंडालों में पूड़ी-सब्जी वितरण की व्यवस्था होती थी लेकिन अब न केवल भंडारों की संख्या बढ़ी है वरन अब तरह-तरह के व्यंजन भी परोसे जाने लगे हैं। यह सम्भवत: मध्यवर्ग में हाल के वर्षों में आयी संपन्नता के कारण हुआ है। दही-हांडी की प्रतिस्पर्धा बीच के दौर में जोर पर थी लेकिन यह समय के साथ रुझान सीमित हुआ है।
जन्माष्टमी मेले में सर्कस और मीना बाजार का इंतजार अंचलवासियों को बेसब्री से रहता था। एक से बढक़र एक सर्कस रायगढ़ में आते थे और लगभग महीने भर इनका शो होता था। स्कूली बच्चों के लिये रियायती दर पर विशेष शो होते थे। धीरे-धीरे सर्कस कमजोर होते चले गये। मीना बाजार में भी आधुनिक बाजारवाद का प्रभाव साफ दिखायी देता है। पहले की तुलना में अब मीना बाजार की दुकानों में बिकने वाली परम्परागत उपभोक्ता वस्तुओं व खिलौनों की जगह आधुनिक इलेक्ट्रिक व स्वचलित वस्तुएं अधिक हो गयी हैं। एक हवाई झूले को छोडक़र अन्य झूले आधुनिक ढँग के हैं। इस बार तो विदेश से आई हुई जलपरी का खेल रायगढ़ के लिये नया है। पहले मीना बाजार में ही एक जादू व एक डांस का शो होता था। डांस के शो में फूहड़ता अधिक होती थी लेकिन यह नौजवान पीढ़ी को भाता था। बहुत पहले मीना बाजार में सर्वाधिक आकर्षण का केंद्र ‘मौत की छलांग’ नामक शो होता था। इसमें फायर फाइटर ड्रेस व मास्क पहनकर एक व्यक्ति बहुत ऊंचे टॉवर पर चढ़ जाता था। फिर अपने ड्रेस पर मिट्टी तेल छिडक़कर आग लगा देता था और उस ऊंचे टॉवर से नीचे बने हुये पानी के कुएँ में छलाँग लगा देता था। यह बेहद रोमांचकारी व साँसे रोक देने वाला प्रदर्शन होता था। भीड़ को बनाये रखने के उद्देश्य से यह शो मध्य में और मीना बाजार बंद होने के समय दो बार किया जाता था। कतिपय दुर्घटनाओं में छलाँग लगाने वाले व्यक्ति की मौत जाने के कारण आजकल यह शो प्रतिबंधित कर दिया गया है।
समय के साथ बदलाव तो स्वाभाविक ही है लेकिन कुछ लोगों का यह मानना है कि मौजूदा समय में मेला- आयोजन में धार्मिकता कम हुई है और प्रदर्शन का भाव बढ़ा है। यह सम्भवत: इंटरनेट व टेलीविजन के बढ़ते प्रभाव से उपजी कथित आधुनिकता के कारण हुआ होगा। हालाँकि यह तो लगभग सभी लोग मानते हैं कि जन्माष्टमी मेले का सांस्कृतिक महत्व पहले जैसा ही बना हुआ है। आज भी महिलाएं उसी पवित्र भाव से कृष्ण-जन्म के बाद उनके प्रथम दर्शन व पालने में बाल कृष्ण को झुलाने के लिये परम्परागत धार्मिकता व उल्लास के साथ लम्बी-लम्बी लाइन के बावजूद शामिल होती हैं। हमारा शहर मेले के इन दिनों में एक बड़े परिवार में बदल जाता है। कोई भीड़ की व्यवस्था में लगा रहता है, कोई लोगों के भोजन की चिंता करता है, कोई ट्रैफिक संभालने में पुलिस का सहायक बन जाता है तो कोई साज-सज्जा व पूजा की व्यवस्था में जुटा रहता है। कुल मिलाकर रायगढ़ का जन्माष्टमी उत्सव अपनी ख्याति के अनुरूप आज भी उसी आध्यात्मिकता, भव्यता और उल्लास के साथ मनाया जा रहा है, यह रायगढ़वासियों का अपनी परम्परा व संस्कृति के प्रति लगाव व समर्पण का परिचायक है।

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